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राजनीति न्याय प्रणाली की उपेक्षा न करे

जादी के साठ साल बाद हमारे देश की न्याय प्रणाली आज किस मुकाम पर खड़ी है इस की राजनैतिक समीक्षा होना जरुरी है। हमारी संसद और विधान सभा को यह जरुर देखना चाहिए कि इन साठ सालों में उन ने जिन पुराने कानूनों को लागू रहने की मंजूरी दी और जितने नए कानून बनाती जा रही है। उन की पालना भी हो रही है या नहीं। या वे केवल किताबों में बन्द हो कर रह गए हैं।
मारी संसद और विधानसभाऐं केवल वे काम करती हैं जो राजनैतिक दलों के वोटों को बनाए रखने और उन्हें  बनाए रखने के लिए जरुरी हों। वे उन कामों को भी करती हैं जो राजनैतिक दलों के चन्दों को सुरक्षित रखने या नए चन्दा दाताओं को अपने प्रभाव में लाने के लिए जरुरी हों। वे उन कामों को भी करती हैं जो अन्तर्राष्ट्रीय दबावों को झेलने के लिए जरुरी हों। जनता के दूरगामी हितों की सुरक्षा के लिए जरुरी काम यदा कदा ही होते हैं वे तभी होते हैं जब राजनीति पर जनता का दबाव बढ़ता है राजनीति के लिए वे आवश्यक हो जाते हैं।

मारी न्याय प्रणाली इस तरह की है कि सार्वजनिक रूप से बोलने के अवसर न्यायाधीशों के पास कम ही होते हैं। इस कारण से न्यायाधीशों द्वारा न्याय प्रणाली की समस्याऐं जनता अथवा मीडीया तक पंहुँच ही नहीं पाती हैं। लेकिन कब तक न्यायाधीश चुप रह कर राजनीति, कार्यपालिका व विधायिका के कारण तथा लगातार संसाधनों की कमी के कारण न्याय प्रणाली की अवनति को सह सकते हैं?

भारत के मुख्य न्यायाधीशों ने समय समय पर यह तो कहा है कि उन के पास संसाधनों की कमी है। लेकिन यह नहीं कहा कि वास्तविक हालात क्या हैं?

हली बार मुख्य न्यायाधीश ने न्याय प्रणाली के वास्तविक हालात और विवशता को जनता के सामने रखा और वह भी केवल आंकड़ों को प्रस्तुत कर के। उन्हों ने फिर भी यह नहीं कहा कि इस के लिए सरकारें और उन के उपांग जिम्मेदार हैं। उन्हों ने फिर भी न्याय प्रणाली की मर्यादा और गरिमा का ध्यान रखा। वे इस के लिए देश की जनता की ओर से साधुवाद के पात्र हैं।

२० दिसम्बर को भारत के मुख्य न्यायाधीश ने हमारी न्याय प्रणाली की विवशता को खोल कर देश के सामने उस समय रखा जब वे महाराष्ट्र में न्यायिक अकादमी के भवन के लिए आधारशिला रखने गए थे। भला हो उन पत्रकारों और संपादकों का जिन्हों ने उन के भाषण के अंशों को जनता तक पहुंचने दिया। अन्यथा यह हकीकत अब भी जनता तक नहीं पहुँच पाती।

लेकिन उसके बाद क्या? न तो किसी अखबार ने इन आंकड़ों पर सम्पादकीय लिखे और न ही मीडिया में कोई चर्चा हुई। किसी टीवी चैनल ने इस पर कोई फीचर नहीं पेश किया, न कोई चर्चा हुई। एक हिन्दी ब्लॉंग ‘तीसरा खंबा’ है जो इस हनुमान की पूंछ को लिए रुदन कर रहा है। २० दिसम्बर के बाद के दिनों में किसी भी राजनेता ने मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर कोई बयान दिया। इस से स्पष्ट है कि वे जनता की कितनी चिन्ता करते हैं।

कौन है जो नक्कार खाने की तूती की आवाज पर ध्यान देगा? आज देश में जनता वैश्वीकरण द्वारा प्रस्तुत घायल कर देने वाली रोशनी की चकाचौंध में कुछ देखने में सक्षम नहीं है। केवल वे ही नक्कार खाने के नगाड़ों को छेड़ सकते हैं जिन का आज न्याय प्रणाली की अवनति से प्रभावित हो रहा है। ये वकील बिरादरी है जो इस अवनति से सबसे अधिक घायल हो रही है। उस में भी वे सब से अधिक प्रभावित हैं जो निचली अदालतों में नये नये वकालत करने आए हैं या पिछले बीस सालों से वकालत कर रहे हैं और जिन की आय का एकमात्र या मुख्य साधन वकालत है। उन्हें ही न्याय  प्रणाली के सुधार हेतु नगाड़े छेड़ने होंगे।

(आगे —– कैसे प्रभावित है वकील बिरादरी न्याय प्रणाली की इस अवनति और शासन द्वारा इस की उपेक्षा से?)

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