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कपट, कैसे कैसे… बीमा कराने के पहले सावधानी बरतें

हमने पिछले आलेख में कंट्रेक्ट किए जाने के दौरान होने वाले ‘कपट’ (fraud) की परिभाषा को जाना। इस आलेख पर ज्ञानदत्त जी पाण्डे ने कहा कि- “करण घोड़े के गुण तो बखानता है पर ऐब की चर्चा नहीं करता। तब भी यह कपट नहीं होगा?…..इस उदाहरण में मुझे नैतिकता के प्रश्न फुदकते दीखते हैं!
विगत आलेख में जो भी उदाहरण दिए गए थे, वे सभी मूल कानून में परिभाषा को स्पष्ट करने के लिए दिए हुए हैं। जहाँ तक नैतिकता का प्रश्न है तो कानून मे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि कंट्रेक्ट के पक्षकारों के मध्य ऐसे संबंध हों जिन के कारण ऐब बताना उस का कर्तव्य हो तो फिर एब नहीं बताना कपट कहलाएगा। इस का अर्थ यह हुआ कि पूर्व संबंध के कारण एब बताना जरूरी नहीं है तो फिर उस में नैतिकता आड़े नहीं आती।
कानून की यह समझ इस तथ्य पर आधारित है कि खऱीदने वाले को माल के बारे में सभी तरह की एहतियात बरतना चाहिए अर्थात खरीददार को सतर्क रहना चाहिए। अब खरीददार को इस उदाहरण में केवल एक ही तो एहतियात बरतनी थी कि उसे विक्रेता से पूछना था कि घोड़े में कोई एब तो नहीं है? यदि विक्रेता इस सवाल का जवाब यह देता है कि नहीं साहब कोई ऐब नहीं तो खरीददार बेफिक्र हो कर घोड़ा खरीदे। अगर फिर भी कोई ऐब निकलता है तो विक्रेता कपट का दोषी होगा। विक्रेता यदि कहता है कि उस की जानकारी में तो कोई ऐब नहीं, फिर भी आप परख कर देख लें। ऐसा उत्तर मिलने पर खरीददार को सावधान हो जाना चाहिए, और वाकई परख कर अपनी जोखिम पर माल खरीदना चाहिए।
दूसरा प्रश्न अभिषेक ओझा जी का था कि- “घोडे के मामले में ये साबित कैसे होगा की उसे जानकारी थी? वो क्यों ये मानने लगा की उसे जानकारी थी?”
वैसे तो कोई तथ्य कैसे साबित किया जाएगा यह एक अलग कानून का भाग है जिसे साक्ष्य का कानून कहा जाता है, और उस की व्याख्या यहाँ प्रस्तुत करना विषय विचलन हो जाएगा। लेकिन इतना कहना मैं उचित समझता हूँ कि यदि विक्रेता जो खुद भी घोड़ा कहीं और से खरीद कर बेचने के लिए लाया है उसे भी पता नहीं कि घोड़े में क्या ऐब है? तो उसे कैसे दोषी ठहराया जा सकता है। जब आप कपट की बात कहेंगे तो आप को ही साबित करना पड़ेगा कि विक्रेता को ऐब की जानकारी थी। क्यों कि तभी कपट होगा भी अन्यथा नहीं।
हम एक उदाहरण और लें कि मारूती कंपनी ने कार बनाई और वह सीधे डीलर के पास आ गई। डीलर ने उसे बेच दिया। खरीददार को चाहिए कि वह कंपनी का गारंटी या वारंटी कार्ड देखे जिस में आश्वासन लिखे होते हैं और निर्माणदोष के लिए कंपनी जिम्मेदारी लेती है। अगर फिर भी कोई निर्माण दोष होगा तो कंपनी उस के लिए जिम्मेदार होगी।
हम अब विष्णु बैरागी जी के पेशे पर आते हैं। वे भारतीय जीवन बीमा निगम के पूर्ण कालिक अभिकर्ता हैं। जीवन बीमा जिन मामलों में बीमा की राशि देने से इन्कार कर देता है वे अधिकांश कपट के आधार पर बीमा पॉलिसी को शून्यकरणीय होने के आधार पर ही करता है।
होता यह है कि जब बीमा करने के लिए प्रक्रिया प्रारंभ होती है तो एक प्रस्ताव देना होता है जो बीमा कंपनी के ही एक प्रपत्र पर होता है। प्रस्ताव प्रपत्र के अक्सर तीसरे पृष्ठ पर स्वास्थ्य संबंधी प्रश्नों के साथ कुछ अन्य प्रश्न पूछे गए होते हैं। इन प्रश्नों का उत्तर बिलकुल असावधानी में देते हैं, अथवा गलत उत्तर देते हैं। बाद में जब कोई क्लेम आता है तो बीमा कंपनी अन्वेषण कराती है और तब यह तथ्य सामने आता है कि प्रस्ताव प्रपत्र में पूछे गए प्रश्नों के गलत उत्तर दिए गए हैं तो इसे कपट माना जाता है और बीमा पालिसी ही शून्यकरणीय हो जाती है और इस तरह से बीमाधारी अथवा उस के उत्तराधिकारी उस बीमा जोखिम के लाभ से वंचित हो जाते हैं।
यहाँ बीमा कंपनी अपनी पॉलिसी देने के पहले आप से कुछ सवाल पूछती है और आप उन के मिथ्या उत्तर देते हैं अथवा कुछ जानकारियाँ छिपाते हैं। और बाद में बीमा
कंपनी इस कपट को साबित कर देती है तो कपट हुआ कि नहीं ?
(जनरल इंश्योरेंस) साधारण बीमा कंपनियाँ भी इसी तरह का प्रस्ताव प्रपत्र भराती हैं।
मेरी सलाह है कि किसी भी तरह की बीमा पालिसी लेने के समय प्रस्ताव प्रपत्र भर कर उस पर हस्ताक्षर करने के पहले उसे अच्छी तरह से जाँच लें कि कहीं उस में कोई मिथ्या जानकारी तो नहीं दी है और कोई तात्विक जानकारी छिपाई तो नहीं गई है। कभी भी खाली प्रस्ताव प्रपत्र पर हस्ताक्षऱ न करें। (बैरागी जी से क्षमा याचना सहित) यदि अभिकर्ता भी आप को किसी प्रश्न का गलत उत्तर देने या छिपाने को बोले तो भी आप को कोई गलत उत्तर नहीं देना है, कोई जानकारी नहीं छुपानी है। क्यों कि दावा होने पर बीमा कंपनी द्वारा दावे से इन्कार कर देने पर न तो अभिकर्ता पर, और न ही अभिकर्ता के कारण बीमा कम्पनी पर कोई जिम्मेदारी नहीं आएगी। (जारी)

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