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उन्हें न्याय नहीं मिला, और क्या इन्हें दिया जा सकेगा ?

दिसम्बर 1978 में मेरी सनद आने के साथ ही मेरी विधिवत् वकालत शुरू हो गई थी। उसी महीने एम. एन. चतुर्वेदी और आर. पी. तिवारी को नौकरी से निकाला गया। एम. एन. चतुर्वेदी वही महेन्द्र ‘नेह’ हैं जिन के अनेक गीत और कविताएँ आप ‘अनवरत’ पर पढ़ चुके  हैं।  कारखाने में उत्पादन वृद्धि के लिए प्रबंधन ने कर्मचारियों को उच्चतम बोनस और एक्सग्रेशिया का लालच दिया था। उत्पादन बहुत हुआ। कर्मचारी वादा पूरा करने को कह रहा था। लेकिन प्रबंधन की नीयत में खोट आ गया था। माल के संभावित ऑर्डर नहीं मिल पाए थे। उत्पादित माल से गोदाम भर चुके थे और उत्पादन जोरों पर था। नए उत्पादन को रखने के लिए स्थान की समस्या हो रही थी। प्रबंधन चाहता था कि किसी तरह उत्पादन कुछ दिन के लिए रुक जाए। लेकिन उस के लिए कोई वजह नहीं थी। यूनियनें बोनस और एक्सग्रेशिया का वादा पूरा करने की मांग पर थीं और कर्मचारियों को गरम कर रही थीं। कर्मचारियों की रोज मीटिंगें हो रही थीं।  वे हड़ताल से भी बच रहे थे, क्योंकि यही तो प्रबंधन भी चाहता था।

एक दिन एक अनजान कर्मचारी ने कारखाने का मेन स्विच बंद कर दिया। मशीनें चलते चलते रुक गईं। कर्मचारी अपने अपने प्लांट छोड़ कर बाहर आ गए, नारे लगाने लगे। शिफ्ट छूटने का समय हुआ तो वापस घरों को चल दिए। नयी शिफ्ट को अंदर आने ही नहीं दिया। प्रबंधन ने इसे हड़ताल की संज्ञा देते हुए तालाबंदी कर दी। अब कर्मचारी कहते प्रबंधन ने तालाबंदी की है। प्रबंधन कहता तालाबंदी गैर कानूनी हड़ताल का नतीजा है। एक माह में आधे गौदाम खाली हो गए, तालाबंदी उठा ली गई। लेकिन अब कर्मचारी बोनस और एक्सग्रेशिया के बगैर काम पर लौटने को तैयार नहीं थे।

इस हड़ताल और तालाबंदी के दौर में भी महेन्द्र और तिवारी दोनों ड्यूटी करते रहे। बिजली चालू रखनी थी, टरबाइन भी चलता रहा। लेकिन कालोनी में जब कर्मचारियों की बैठकें होतीं तो दोनों प्रबंधन का छल कर्मचारियों को बताते। सरकार के हस्तक्षेप से कारखाना चालू हुआ तो अनेक कर्मचारियों को जो आंदोलन में आगे थे ड्यूटी नहीं लिया गया। उन्हें आरोप पत्र दे कर निलंबित कर दिया। आरोप पत्रों की जाँच में महेन्द्र और तिवारी ने कर्मचारियों की पैरवी की। नतीजा यह कि एक सुबह जब वे ड्यूटी पहुँचे तो उन्हें सेवा समाप्त करने के पत्र थमा दिए गए। लिखा था आप सुपरवाईजर है, आप का वेतन 500 रुपए से अधिक है इस कारण आप के नियुक्तिपत्र की शर्त संख्या-??  के अनुसार एक माह का वेतन अदा कर सेवाएं समाप्त की जाती हैं। 
दोनों ने खुद को श्रमिक मानते हुए मुकदमा दायर किया। इस बीच उन के एक साथी महेशचन्द्र शर्मा ने अदालत में उन के पक्ष में बयान दिए तो उन्हें भी उसी तरह कारखाने के बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।  

दोनों को 29.12.1978 को सेवा से पृथक किया गया था, और सेवा समाप्ति का विवाद 01.06.1983 को राज्य सरकार ने श्रम न्यायालय को रेफरेंस कर दिया था। वहाँ गवाही सबूत आदि की समस्त कार्यवाहियाँ पूरी हो कर मुकदमा 02.04.1996 को बहस हेतु नियत हो गया। 16.10.1984 को महेशचन्द्र शर्मा का मुकदमा भी इन के मुकदमे के साथ आ मिला और 06.05.1996 को वह भी अंतिम बहस हेतु नियत हो गया। 

तब से अब तक श्रम न्यायालय के पाँच भिन्न-भिन्न पीठासीन अधिकारी इन प्रकरणों में अन्तिम बहस सुन चुके हैं। किन्तु किसी न किसी बहाने से इन मुकदमों में निर्णय टल जाता है। जज कोई निर्णय करे तब तक उस का ट्रांसफर हो जाता है। 
इस बीच तीनों ने अपना जीवन चलाने को नए रास्ते तलाश किए और मुकदमा लड़ते रहे। इस बीच 14 मई को महेशचंद्र शर्मा का देहान्त हो गया। वे तीस वर्ष तक निर्णय की प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन उन के मुकदमों का निर्णय बावजूद तमाम प्रयासों के उन के जीवनकाल में निचली अदालत से भी न हो सका। जब कि आगे हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट और भी हैं। 
अदालत और न्याय व्यवस्था महेशचन्द्र शर्मा को उन के जीवनकाल में न्याय देने में असमर्थ रहीं। महेन्द्र और तिवारी के मुकदमों का निर्णय हो भी गया और वे जीत भी गए तो भी क्या उसे न्याय कहा जा सकेगा?
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