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आतंकवाद से निपटने को कानूनी ढांचा (टाडा)

 आतंकवाद से निपटने के लिए देश में कानूनों के निर्माण की प्रक्रिया 1985 में आतंकवादी तथा विघटनकारी क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1985, (संक्षेप में टाडा)  से प्रारंभ हुई थी। यह कानून मई 1985 में देश के कुछ भागों में आतंकवादी गतिविधियों की वृद्धि की पृष्ठभूमि में अधिनियमित किया गया था। तब ऐसा अनुमान किया गया था कि दो वर्ष की अवधि के भीतर इस बुराई को नियंत्रित कर पाना संभव हो सकेगाऔर इसलिए इस कानून के जीवन की अवधि दो वर्षों के लिए सीमित रखी गई थी। लेकिन कुछ समय बाद ही यह अहसास होने लगा कि यह विभिन्न कारकों के चलते विशेष रुप से पंजाब जैसे राज्यों में आतंकवाद ने एक सतत खतरे का रूप ले चुका है और न केवल कानून को जारी रखने ही आवश्यक नहीं बल्कि उसे और अधिक मजबूत भी बनाना होगा।

इस कानून की अवधि 23 मई, 1987 को समाप्त हो रही थी और तब संसद के दोनों सदनों के सत्र नहीं चल रहे थे और तत्काल कार्रवाई करना जरूरी हो गया था। राष्ट्रपति ने आतंकवादी और विघटनकारी क्रियाकलाप (निवारण) अध्यादेश, 1987 को जारी किया जो 4 मई, 1987 से प्रभावी हो गया।

लेकिन इस के प्रावधानों मजबूत बनाने की जरूरत के चलते आतंकवादी और विध्वंसकारी गतिविधि (निवारण) अधिनियम, 1987 अधिनियमित किया गया जो टाडा के नाम से मशहूर हुआ।

टाडा-1985 से दो नए अपराधों, अर्थात्, “आतंकवादी कार्रवाई” और “विघटनकारी गतिविधियों” को परिभाषित किया गया था। इन अपराधों के विचारण के लिए विशेष अदालतों की एक प्रणाली की स्थापना की गई थी। इन अपराधों में अभियुक्त की जमानत पर रोक लगाने के लिए यह प्रावधान किया गया था कि न्यायालय जब तक यह कारण रिकॉर्ड न करे कि कि अभियुक्त के निर्दोष होने के लिए उचित आधार उपलब्ध हैं उस की जमानत नहीं ली जाएगी। इस तरह अभियोजन की इस जिम्मेदारी को कि अभियुक्त पर आरोपों को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त आधार हैं अभियुक्त पर डाल दिया गया था कि वह ऐसे सबूत लाए कि उस ने यह अपराध नहीं किया है। पुलिस को अभियुक्त को निरुद्ध रखने के लिए अत्यधिक अधिकार दे दिए गए थे।

टाड़ा-1987 में कानून को मजबूत करने के लिए इस कानून को अन्य कानूनों पर तरजीह दे दी दी गई और कुछ अपराधों को पुनर्परिभाषित किया गया। जैसे “आतंकवादियों को छुपाना और पनाह देना” व “अधिसूचित क्षेत्रों में अवैध हथियार रखना।”  इस के द्वारा कुछ अपराधों का दंड बढ़ा दिया गया था। ऐसी संपत्ति को पुलिस द्वारा अपने अधिकार में लेने का अधिकार प्रदान किया गया था जिस के लिए यह समझा जाता था कि यह आतंकवादी गतिविधियों के माध्यम से अर्जित की गई है। इस तरह की संपत्ति की जब्ती और अटैचमेंट के प्रावधान भी बनाए गए थे। इस के द्वारा किसी संदिग्ध को अन्वेषण के दौरान अधिक समय तक पुलिस हिरासत में रखने का प्रावधान किया गया था। पुलिस अधिकारी के सामने दिए गए अपराध स्वीकारोक्ति को साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य बना दिया गया था।

इस कानून की संवैधानिक वैधता को उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी। उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ ने कानून वैध ठहराया लेकिन सरकार से को टाडा के कड़े प्रावधानों के किसी भी संभावित दुरुपयोग को रोकने के लिए सुरक्षात्मक उपाय करने को कहा गया।

टाडा-1987 की  वैधता को 1989, 1991 और 1993 में आगे बढ़ाया गया। लेकिन इसके दुरुपयोग की बहुत अधिक शिकायतों की एक श्रृंखला के बाद इसे 1995 में समाप्त हो जाने दिया गया। बाद में देश ने कई आतंकवादी घटनाओं को सहा जिन में 1999 में इंडियन एयरलाइंस की उड़ान आईसी-814 का कंधार अपहरण और दिसम्बर 13, 2001 में संसद पर हमला प्रमुख थे। जिस के एक परिणाम स्वरूप आतंकवाद निरोधक अधिनियम, 2002 (पोटा) अस्तित्व में आया। (जारी)

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