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सब से पहले, सब से निचली अदालत

भाई दिनेश पालीवाल लिखते हैं….

मैं राजकीय पोलिटेक्निक में व्याख्याता (lecturer) हूँ।  अगस्त 2006 में head of the डिपार्टमेन्ट की ४ पोस्ट्स  के लिए DPC बैठी।  प्रमोशन का criteria “seniority subject to rejection of unfit” था।  सीनियरटी में मेरा नम्बर २ था। CR में कोई  ADVERSE ENTRY  नहीं है।  DPC ने फ़िर भी मुझे UNFIT पाया और मेरा प्रमोशन नहीं किया।  मैंने सरकार को लिखा की यह ग़लत हुआ है पर कोई जबाब नहीं मिला. मेरे मित्रों ने सलाह दी की मुझे HIGH COURT जाना चाहिए।  यहीं से मेरी परेशानियाँ शुरू हो गई। नवम्बर 2006 में मैंने एक जाने माने (ज्यादा फीस लेने वाले) वकील साहिब को अपना केस सौंप दिया। दिसम्बर 2006 में एक रिट HIGH COURT में दाखिल हो गई. DPC QUASH करने के लिए। मार्च 2007 में चीफ जस्टिस की बेंच ने कहा कि आपके पास ALTERNATIVE REMEDY  है। इसलिए आपको PUBLIC SERVICE TRIBUNAL जाना चाहिए। वकील साहिब (जो अब यहीं जज बन गए हैं) ने मुझसे कहा कि TRIBUNAL जाने की कोई जरुरत नहीं है, यहीं फैसला करा दूंगा। नवम्बर 2007 तक कभी इस बेंच में कभी उस बेंच में घूमते रहे, बीच में सरकार से सारे रिकॉर्ड तलब किए गए, एक बार सेक्रेटरी को पर्सनली हाजिर होने का आदेश भी हुआ। जब चीफ जस्टिस की बेंच में फ़िर केस सुना गया और एक लाख रुपया हाई कोर्ट के वकील साहिब की फीस  देकर  मुझे  PUBLIC SERVICE TRIBUNAL आना पड़ा।

यहाँ का हाल और भी बुरा है. सरकार से दस DATES में फिर वही सारे रिकॉर्ड तलब किए गए, जो हाई कोर्ट ने तलब किए थे।  सारे रेकॉर्ड्स आने के बाद फाइनल JUDGEMENT के लिए तीन DATES  लगी । ४ दिसम्बर २००८ की DATE को पता लगा कि बेंच के एक जज साहिब रिटायर हो गए हैं इसलिए नए जज साहिब इस केस को दुबारा सुनेंगे.  (मतलब एक साल फ़िर  गया + 50,000 रुपये.)

PUBLIC SERVICE ट्रिब्यूनल सरकारी वकील साहिब कहते हैं कि  बेंच की पावर DPC को QUASH करने की नहीं है. इसके लिए आपको जजमेंट  के बाद फ़िर हाई कोर्ट जाना पड़ेगा  (+1,00,000 रुपये)।

उत्तर…..

पालीवाल जी!
आप के कष्टों और दुख से मैं भली-भांति परिचित हूँ। मैं खुद यहाँ तीसरा खंबा में अपने उन तीन मुवक्किलों के बारे में लिख चुका हूँ जिन का मुकदमा 1995 से श्रम न्यायालय में अन्तिम बहस में चल रहा है। पाँच जज अन्तिम बहस सुन चुके हैं। लेकिन निर्णय देने के पहले सब का स्थानान्तरण हो जाता है। इस से यह कयास भी लगाया जा सकता है कि शायद उन का स्थानान्तरण हमारा विपक्षी करा देता है। हालाँकि ऐसा नहीं है। इसी कारण से हमारी न्याय व्यवस्था जरूरत से बहुत अधिक बदनाम है। वास्तव में हमारे यहाँ जरूरत की सिर्फ 16 -17  प्रतिशत अदालतें हैं। कम से कम चार गुना अदालतें और होना चाहिए। तब जा कर न्याय मिल सकता है। इस बात को हमारे भारत के मुख्य न्यायाधीश लंदन के एक समारोह तक में कह चुके हैं। फिर भी हमारी राज्य सरकारों के सिर पर जूँ तक नहीं रेंगती। केन्द्र सरकार ने जरूर इस तरफ कुछ प्रयास किए हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं। देरी का तो मुख्य कारण अदालतों की कमी  है। इस कमी से उन पर हमेशा अधिक काम का दबाव बना रहता है। अदालतें अधिक से अधिक निर्णय करने की कोशिश करती हैं।  लेकिन इस कोशिश में उन के निर्णयों की गुणवत्ता में बहुत कमी आ गई है।

आप का मामला जैसे आप ने तथ्य बताए हैं काफी अच्छा है। निर्णय आप के ही हक में होना चाहिए। आप के लिए दोनों ही तरह के उपाय अर्थात सेवा अधिकरण और उच्च न्यायालय उपलब्ध थे। उच्चन्यायालय केवल रिट क्षेत्राधिकार में ही जाया जा सकता है। जिस में साक्ष्य प्रस्तुत करने की संभावना बिलकुल नही होती। रिट क्षेत्राधिकार बहुत सीमित होता है और वैकल्पिक उपाय उपलब्ध रहने पर सामान्यतः उच्चन्यायालय रिट को खारिज कर सेवा अधिकरण जाने की सलाह देता है। यही आप के साथ हुआ है। आप किसी ऊंची फीस वाले वकील के पास गए इस संभावना में कि जल्

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