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चैक बाउंस के फौजदारी मुकदमों का गुब्बारा पंक्चर

एक सप्ताह पहले जब हम मध्यान्ह की चाय पीकर पान खाने के लिए निकले तो साथी वकील साहब ने धारा 138 परक्राम्य विलेख अधिनियम के दो निर्णयों का उल्लेख किया।   इन मामलों में से एक में 20,000 रुपए का और दूसरे में 30,000 रुपए का चैक अनादरित हुआ था।  न्यायालय में अपराध साबित हो चुका था।  वास्तविक लेन-देन कम रुपयों का था।  अभियुक्त वास्तविक रकम चुकाने को तैयार था। जब कि चैक धारक चैक की पूरी रकम चाहता था।  नतीजा यह हुआ कि मामले में कोई समझौता नहीं हो सका।

अपराध साबित हो जाने पर अदालत को सजा देनी थी।  हो सकता है अदालत सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों के व्यवहार से समझ गई हो कि वास्तविकता क्या है?  अदालत ने 20000 रुपए वाले मामले में निर्णय सुनाया कि अभियुक्त छह माह का कारावास भुगतेगा और 20000 रुपए अर्थदण्ड अदा करेगा, अर्थदण्ड अदा न करने की स्थिति में 20 दिन का साधारण कारावास अलग से भुगतेगा। अदालत ने इस अर्थदण्ड की राशि (रुपए 20000) में से मात्र 5000 रुपए परिवादी चैक धारक को दिलाए जाने के आदेश दिए। (निर्णय का अंतिम भाग आप नीचे चित्र पर माउस चटका कर के पढ़ सकते हैं) दूसरे मामले में भी इसी तरह पाँच हजार रुपए परिवादी को दिलाए जाने का आदेश हुआ।

आम तौर पर चैक बाउंस के मुकदमों में चैक धारक मुकदमे के खर्च और फीस के 10% तक की राशि तो वकील को दे देता है, लेकिन शेष फीस बाद में रकम मिलने पर देता है।  मुझे इस मामले में अपने साथी  वकील की फीस पर संकट दिखाई दिया। मैं ने पूछ लिया, फीस का क्या?  तो वे कहने लगे, फीस गई।  उस को पाँच हजार मिले हैं। दस प्रतिशत से 500 रुपए बनता है, जो वह पहले ही दे चुका है।  मुझे लगा कि ये दोनों ही निर्णय बहुत उचित निर्णय हैं। 

वास्तविकता है कि किसी व्यक्ति द्वारा उधार दी गई या किसी अन्य दायित्व के कारण चुकाए जाने वाली राशि का नहीं चुकाया जाना कभी भी अपराध नहीं हो सकता है। यह केवल एक व्यवहारिक दायित्व हो सकता है।  और इस मामले में दीवानी अदालत ऐसी राशि और समुचित ब्याज और मुआवजा दिला सकती है लेकिन उस के लिए कारावास की सजा देना कभी भी किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता है।  कानून के द्वारा बैंक चैक का अनादरण करना एक अपराध बनाया गया है तो इस अपराध की सजा उस व्यक्ति को मिलनी चाहिए जिस ने अपराध किया है। अर्थ दण्ड की राशि में से परिवादी को चैक की राशि या उस से अधिक राशि दिलाया जाना सिद्धांत रूप में भी गलत है।  हाँ वह अर्थदण्ड की राशि में से अभियोजन का खर्च प्राप्त करने का अवश्य अधिकारी है।

यहाँ इस निर्णय से यही स्पष्ट हो रहा है कि अदालत ने अपराध के लिए अपराधी को सजा दी और अर्थदण्ड की राशि में से परिवादी को 5000 रुपए दिला दिए।  इस निर्णय से परिवादी को उस के चैक की धनराशि नहीं मिली। जो उसे मिलनी भी नहीं चाहिए थी।  क्यों कि इस तरह राशि दिलाना अपराधिक न्यायालय का काम नहीं हो सकता है।  इस निर्णय से भारत के मुख्य न्यायाधीश के उन शब्दों की गंध भी आती है,  जिस में उन्हों ने कहा था कि अदालतों को वसूली ऐजेण्ट नहीं बनने दिया जाएगा।

परिवादी को यह भी हानि हुई कि वह अब दीवानी अदालत के जरिए चैक की राशि प्राप्त करने के लिए मुकदमा भी नहीं कर सकता। क्यों कि चैक की तिथि को निकले तीन वर्ष से अधिक हो चुके हैं।  अवधि निकल जाने के कारण यह उपाय उस के लिए अवधि बाधित हो चुका है।  यदि चैक बाउंस के फौजदारी मुकदमों में इस तरह के निर्णय होने लगे तो लोग वसूली के लि

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