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हाईकोर्टों का भी विकेन्द्रीकरण तो करना ही होगा

राजस्थान के कोटा, उदयपुर और बीकानेर संभागों के वकील पिछले एक माह से अधिक समय से इस बात को लेकर हड़ताल पर हैं कि उन के संभाग मुख्यालयों पर हाइकोर्ट की बेंचें स्थापित की जाएँ। कोटा में हड़ताल को एक माह हो चला है, बीकानेर संभाग डेढ़ माह से और उदयपुर के वकील तीन माह से लगातार हड़ताल पर हैं। तीनों ही स्थानों पर वकीलों को स्थानीय जन संगठनों का समर्थन हासिल हो रहा है।  इस बीच जोधपुर संभाग के वकील भी एक सप्ताह से अधिक की हड़ताल कर चुके हैं, उन का कहना यह था कि हाईकोर्ट को और अधिक विभाजित नहीं किया जाना चाहिए। जोधपुर के वकीलों की हड़ताल तो इस बात से प्रेरित थी कि उन के नगर को हाईकोर्ट होने के कारण जो गौरव और लाभ हासिल हैं, वे समाप्त नहीं होने चाहिए।

इस बीच जोधपुर और जयपुर संभागों को छोड़ कर राजस्थान के शेष संभागों की बार एसोसिएशनों के प्रतिनिधियों ने बैठक की और अपने आंदोलन को मिल जुल कर चलाने का निर्णय लिया। इस बैठक के उपरांत तीनों संभागों में आंदोलन में तेजी आ गई। अब वकीलों की मांग यह है कि हाईकोर्ट का विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए और प्रत्येक संभाग मुख्यालय पर हाईकोर्ट की बैंच स्थापित की जानी चाहिए। इस तरह इस बैठक से इस आंदोलन को नई दिशा प्राप्त हो गई है। हाईकोर्टों की बैंचों के लिए आंदोलन केवल राजस्थान में ही नहीं है अन्य प्रान्तों से भी इस की मांग उठ रही है और आंदोलन भी जारी हैं।
मैं ने अपने आलेख राजस्थान में हाईकोर्ट की वर्तमान स्थिति और उस का संक्षिप्त इतिहास में बताया था कि राजस्थान में पहली बार जब उच्च न्यायालय आरंभ हुआ तब मुख्य न्यायाधीश सहित कुल 12 जज थे और चार बेंचें जोधपुर, जयपुर, कोटा और उदयपुर में स्थापित थीं। लेकिन बाद में जोधपुर में अविभाजित हाईकोर्ट की स्थापना हो गई। 1977 में जयपुर बैंच को पुनः आरंभ किया गया। आज स्थिति यह है कि राजस्थान उच्च न्यायालय के लिए 40 जजों के पद स्वीकृत हैं। उच्च न्यायालय की एक पीठ  में कम से कम दो खंडपीठें और तीन-चार एकल पीठें पर्याप्त हैं। हाँ, किसी भी स्थान पर काम की अधिकता या न्यूनता के आधार पर पीठें कम या अधिक की जा सकती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि सात या आठ जजों से एक बैंच को कारगर तरीके से चलाया जा सकता है।  राजस्थान हाईकोर्ट की 40 जजों की क्षमता को देखते हुए यहाँ पाँच बैंचे स्थापित की जा सकती हैं।  ऐसी स्थिति में क्या हाईकोर्ट को दो ही बैंचों तक सीमित रखा जाना क्या उचित है? 


हमारा सौभाग्य है कि हम एक गणतंत्र में जीते हैं, जिस ने जनतंत्र अपनाया है। जनतंत्र कोई जड़ अवधारणा नहीं है, अपितु उसे गतिशील होना चाहिए। गतिशील न रहने पर वह उसी तरह सड़ांध मारने लगती है जैसे रुका हुआ पानी। अभी हम केवल पाँच वर्ष में एक बार लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिकाओं, पंचायतों को चुनते हैं और मत देने के उपरांत जनता की भूमिका समाप्त हो जाती है। लेकिन इतने मात्र से  तो  उसे केवल आदिमकालीन जनतंत्र की संज्ञा दी जा सकती है। होना तो यह चाहिए कि राज्य की संस्थाओं के रोजमर्रा के कामों में जनता की भागीदारी को उत्तरोत्तर बढ़ाया जाए। भागीदारी बढ़ाने के साथ ही शासन के केन्द्रों का विकेन्द्रीकरण भी आवश्यक है।  न्यायप्रणाली शासन का अभिन्न अंग है, उस का विकेन्द्रीकरण आवश्यक है।

अब इस बात में क
्या तुक है कि बीस जजों को एक स्थान पर बैठाया जाए और न्यायार्थी चार-चार सौ किलोमीटर की यात्रा करते हुए वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँच कर अनजान शहर में विश्वसनीय और काबिल वकील की तलाश करें जो संभव नहीं है।  वे दलालों के फेर में पड़ते हैं और ठगे जाते हैं। यदि न्यायालय उन की पहुँच में हो तो यह बहुत आसान भी हो जाए और सस्ता भी। सस्ता और सुलभ न्याय प्रदान करना शासन का संवैधानिक कर्तव्य है। उसे निभाना ही होगा। यही कारण है कि आज पूरे प्रदेश में संभागीय स्तर पर हाईकोर्ट बैंचों की मांग जोरों पर है और वकील संघर्ष पर हैं। आज यह स्थिति है कि जनता के संगठन उन के साथ खड़े हो रहे हैं। कल यह भी होगा कि जनता संघर्ष में होगी और नेतृत्व वकील कर रहे होंगे।  अब जब विधि आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को विभाजित कर चार बैंचें और एक मुख्य बैंच बनाना सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया है और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस में सहमति व्यक्त कर दी है तो हाईकोर्टों के मामले में यही प्रक्रिया अपनाने में क्या आपत्ति हो सकती है?

आज यह हो सकता है कि राजस्थान में एक साथ तीन बैंचें और स्थापित की जाएँ और शेष बचे दो संभागों के क्षेत्रों को स्थान की निकटता के आधार पर पाँचों बैंचों में बांट दिया जाए। आज नहीं तो कल यह करना ही होगा। फिर यह संघर्ष का दावानल क्यों। सरकार और राजस्थान उच्च-न्यायालय को इस संबंध में शीघ्र निर्णय लेना चाहिए। जिस से इन तीन संभागों में रुकी पड़ी न्याय की प्रक्रिया फिर से गतिशील हो सके।

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