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कौटिल्य का अर्थशास्त्र और दीवानी विधियाँ : भारत में विधि का इतिहास-5

विधि और न्याय राज्य के महत्वपूर्ण अंग हैं। उन्हें राज्य से कभी पृथक नहीं किया जा सका है। इस कारण से जब भी राज्य नीति की चर्चा होगी। विधि और न्याय उस का महत्वपूर्ण अंश अवश्य ही होगा। यही कारण है कि 300 ईस्वी पूर्व के महान ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में राजनीति, अर्थव्यवस्था के साथ विधि और न्याय के बारे में मजबूत अवधारणाएँ मौजूद हैं। इस ग्रंथ के रचियता जिसे हम कौटिल्य, विष्णुगुप्त और चाणक्य के नामों से जानते हैं, स्वयं भारत के पहले सम्राट के पथ प्रदर्शक थे। उन का निर्देश था कि ‘किसी भी राज्य की स्थिरता के लिए न्याय आवश्यक है, कि राजा को न्याय करना चाहिए, जिस से प्रजा में विद्रोह न पनप सके।’ आज तक हमारी न्याय व्यवस्था इसी निर्देश पर चल रही प्रतीत होती है। न्याय प्रणाली उतनी ही है जिस से विद्रोह न पनपे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में 15 अधिकरण, 150 अध्याय, 180 विषय तथा 6000 श्लोक हैं। इस में धर्मस्थीय भाग में विधि के उपबंधों और कण्टक शोधन के रूप में दण्ड विधि का विस्तृत प्रतिपादन है।
दीवानी विधि
विवाह – कौटिल्य मानते हैं कि विवाह ही संपूर्ण दीवानी विवादों का आधार हैं। वे धर्मशास्त्रों में वर्णित विवाह के आठ रूपों ब्रह्म, देव, प्रजापत्य, आर्ष, गंधर्व, आसुर, राक्षस और पैशाच विवाहों का वर्णन करते हैं। इन में से प्रथम चार को वे विधिमान्य मानते हैं और इस के लिए पिता की स्वीकृति आवश्यक बताते हैं। अंतिम चार विवाहों में माता-पिता की स्वीकृति आवश्यक मानी गई है। एक पत्नित्व को श्रेष्ठ माना गया है। लेकिन यह भी कहा गया है कि वह स्त्री-धन और शुल्क दे कर एकाधिक विवाह कर सकता है। स्त्री को पति की मृत्यु,  पति द्वारा अनिश्चित अवधि के लिए प्रव्रजन करने अथवा संन्यास ग्रहण करने की परिस्थितियों में केवल पति के छोटे भाई से अथवा पति के गोत्र में ही विवाह को अनुमति दी गई है। प्रथम चार विधिमान्य विवाहों में विवाह-विच्छेद की अनुमति नहीं दी गई है। लेकिन अंतिम चार विवाहों में पति-पत्नी में द्वेष होने मात्र से ही विवाह विच्छेद मान्य था। दोनों में से कोई भी एक दूसरे की इच्छा के विरुद्ध विवाह-विच्छेद नहीं कर सकता था।

उत्तराधिकारी और विभाजन – कौटिल्य के अनुसार पुरुष की मृत्यु पर पुत्र, पौत्र, प्रपोत्र और उन के पुत्र चौथी पीढ़ी तक के पुरुष उस की संपत्ति के उत्तराधिकारी माने गए थे। मृतक के पुत्र के अभाव में भाई, भाई के अभाव में पुत्री, पुत्री के अभाव में पिता और पिता के अभाव में पिता के भाई अथवा अन्य वंशज को संपत्ति का उत्तराधिकार  प्राप्त होता था। संपत्ति का कोई भी उपयुक्त उत्तराधिकारी न होने पर उस पर राजा का अधिकार था। लेकिन वेदविज्ञ ब्राह्मण की संपत्ति केवल वेदविज्ञ ब्राह्मण को ही दी जा सकती थी। स्त्री की संपत्ति के लिए सर्वप्रथम पुत्र और पुत्री को, इन के अभाव में पति द्वारा प्रदत्त संपत्ति के लिए पति को उत्तराधिकारी माना गया था।  कौटिल्य ने केवल स्वअर्जित संपत्ति के ही विभाजन का विधान किया था। अवयस्क उत्तराधिकारी को प्राप्त संपत्ति उस के वयस्क होने तक मामा अथवा विश्वसनीय व्यक्ति के संरक्षण में सुरक्षित रखी जाती थी।
संविदा – अर्
थ शास्त्र में अनेक प्रकार की संविदाओं का वर्णन है जिन में क्रय-विक्रय, ऑडमान, और विवाह संविदाएँ प्रमुख थीं।  सक्षम पक्षकारों द्वारा स्वतंत्र सहमति से, कपट रहित और लोकनीति के अनुकूल खुले स्थान में संपन्न की गई संविदाएँ ही विधिमान्य थीं। कपट व मिथ्यानिरूपण युक्त संविदाएँ शून्य मानी गई थीं। अविधिमान्य संविदाओं को पक्षकार विखण्डित कर सकते थे। इस संबंध में दोषकर्ता को दंडित किया जा सकता था।

र्थशास्त्र के अनुसार चरागाह, खेत के मार्ग, पति-पत्नी और पिता-पुत्र के बीच ऋण, ब्याज दर, निक्षेप, गिरवी स्वामी सेवक संबंधों आदि के लिए भी विधि नियमों का प्रतिपादन किया गया है आर्य या किसी अन्य अवयस्क का विक्रय करना अथवा उसे गिरवी रखना दण्डनीय अपराध था।

आगे जानेंगे हम अर्थशास्त्र की दंडविधि के बारे में …..

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