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मोर्य युगीन अपराध विधि : भारत में विधि का इतिहास-6

अर्थशास्त्र की दंडविधि
र्थशास्त्र का यह सिद्धांत आज भी अनुकरणीय है कि उन सभी सदोष कार्यों को जिस से किसी अन्य व्यक्ति को किसी प्रकार की क्षति होती हो अपराध माना जाए। इन अपराधों के लिए दंड का निर्धारण करते समय अपराधी की मनःस्थिति, अपराध का स्वरूप, देश-काल, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक  सामर्थ्य आदि तत्वों पर विचार किए जाने की व्यवस्था की गई थी। अपराध की पुनरावृत्ति को भी विचार योग्य समझा गया था। विभिन्न अपराधों के लिए शारीरिक और आर्थिक दंड रखे गए थे।
कौटिल्य ने भूमि अथवा संपत्तिहरण, मार्गअवरोध, अधिक ब्याज के लेन-देन, रहन को नष्ट करने या लौटाने की अनिच्छा, स्वामी-सेवक संबंधों के अतिक्रमण, क्रय-विक्रय शर्तों की अवहेलना, दूसरे के स्वामित्व की वस्तु को विक्रय कर देना, कन्या हरण, बलात्संग, अवैध द्यूत क्रीड़ा, चोरी, मानहानि, आदि को सामान्य और मध्यम श्रेणी के अपराध मानते हुए 42 पण से 1000 पण तक के पृथक-पृथक दंड की व्यवस्था की थी।

गंभीर प्रकृति के अपराधों के लिए अंगच्छेद व मृत्युदंड की व्यवस्था थी। राजद्रोह, मानुषमांस का विक्रय, हत्या, सेंधमारी, आदि गंभीर अपराध थे जिन के लिए मृत्युदंड निर्धारित था। अरजस्का कन्या को दूषित करने, या उस का दुष्प्रेरण करने के लिए हाथ काटने का दंड निर्धारित था, पशु-समूह चुराने के लिये शिरच्छेद का दंड था, बलात्संभोग से मृत्यु होने पर मृत्युदंड निर्धारित था। यौन अपराध स्त्री की इच्छा अथवा उस के दुष्प्रेरण का परिणाम होता तो स्त्री को भी दंडित किया जाता था। कोई स्त्री स्वैच्छा से किसी पुरूष के साथ संग करती तो उसे राजा की दासी होने का दंड दिया जाता था। वस्तुतः यौन अपराधों के लिए दुष्प्रेरक और मूल अपराधी दोनों ही दंडित होने योग्य होते थे। समान और निम्न जाति की स्त्री के साथ किया गया सहमत सहवास अपराध नहीं था। दैव विपदा में स्त्री के उद्धारक को भी ऐसे सहवास की छूट प्राप्त थी।
राजकीय सेवकों द्वारा किए जाने वाले अपराधों को अर्थशास्त्र में पृथक से बताया गया है और उन के लिए कठोर दंड निर्धारित किए गये थे। ब्राह्मणों को अन्य लोगों की अपेक्षा हलके दंडों का प्रावधान था।
न्याय प्रशासन
कौटिल्य के अनुसार राजा सर्वोच्च न्यायाधिपति होते हुए भी धर्म, व्यवहार, परंपरा और राजाज्ञा के अनुसार ही न्याय कर सकता था। धर्मविधि और राजा द्वारा निर्मित विधि में मतभेद होने पर राजा द्वारा निर्धारित विधि को ही मान्य माना जाता था। अर्थशास्त्र में राज-न्यायालय के अलावा संग्रहण, द्रोणमुख और स्थानीय संज्ञाओं वाले न्यायालयों का उल्लेख है। जिन में स्थानीय विवादों का निपटारा किया जाता था।
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