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जिरह के बाद आत्महत्या के मामले में जज की जिम्मेदारी क्यों न तय हो?

बर पढ़ कर मन खट्टा तो हुआ ही लेकिन हमारी न्याय-प्रणाली पर क्षुब्धता उत्पन्न हुई। आखिर वह कौन जज था जिस ने मुकदमे की आदेशिका में यह नोट लगाया कि ‘खुदकुशी करने से ठीक पहले महिला के साथ कोर्ट में इस तरह के सवाल पूछे गए थे कि वो पूरी तरह से टूट गई’, लेकिन उस तरह के सवालों को पूछने से सफाई पक्ष के वकील को नहीं रोक सका।
इस खबर ने न केवल हमारी सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है अपितु न्याय व्यवस्था को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। जिस महिला के साथ उस के पति की हाजिरी में उस के देवर ने बलात्कार किया हो और बाद में सास ने उसे ही प्रताडित किया हो पहले ही टूट चुकी होना स्वाभाविक है। किसी तरह इस मुकदमे के दर्ज हो जाने के बाद यह तो हो ही नहीं सकता कि ठीक सुप्रीम कोर्ट की नाक के नीचे दिल्ली की अदालत सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के विरुद्ध केमरा ट्रॉयल न करे। केमरा ट्रायल में असंबंधित व्यक्ति तो क्या संबंधित व्यक्ति भी जरूरी न हो तब तक उपस्थित नहीं रह सकता। जज को ऐसी ट्रॉयल के दौरान खुद उपस्थित रहना जरूरी है। जज उपस्थित भी था और उस ने अदालत की मुकदमे की पत्रावली पर नोट भी डाला कि पीड़िता जिरह के दौरान बुरी तरह टूट गई थी। वह कौन सी बात थी जिस ने जज को ऐसे प्रश्न पूछने से सफाई पक्ष के वकील को नहीं रोका? जब यह घटना प्रकाश में आ गई है तो उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का यह भी दायित्व बनता है कि वह उस जज के बारे में जाँच करे, उस से जवाब तलबी करे कि आखिर उस ने ऐसा क्यों होने दिया? यदि लगता है कि जज की भूमिका कानून सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप नहीं पायी जाए तो उसे उचित दंड भी मिलना चाहिए जिस से ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो और उन पर रोक लगे।
ब जज ने पत्रावली पर नोट डाला तो उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए था कि गवाही के उपरांत उस महिला की सुरक्षा की क्या व्यवस्था है? क्यों कि जिरह के बाद भी पीड़िता को उस की ससुराल वालों ने बुरी तरह धमकाया था। उसी के बाद उस बदकिस्मत महिला ने आत्महत्या कर ली। ऐसे लोगों और परिवारों का सामाजिक बहिष्कार भी होना चाहिए। तीसरा खंबा महिला आयोग व मानवाधिकार आयोगों से भी आग्रह करता है कि इस घटना की पूरी जाँच कर तुरंत दोषियों के विरुद्ध त्वरित कार्यवाही की जानी चाहिए।


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