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समान एकल नागरिकता और न्याय की एकरूपता का बीजारोपण : भारत में विधि का इतिहास-11

मुगलकाल की दंड व्यवस्था पूरी तरह से मु्स्लिम विधि पर आधारित थी और अपराध साबित हो जाने पर अपराधी को दिए जाने वाले दंडों को चार तरह से वर्गीकृत किया जाता था।  1. हद्द,  2. ताजीर, 3. तशहीर और 4.  किसास। 

1. हद्द

ये खुदाई आदेश थे जिन की अवहेलना नहीं की जा सकती थी और दंड ‘शर’ में निश्चित था। इस श्रेणी के अपराधों में लूट व हत्या, रक्तपात, जारकर्म, मद्यपान, मानहानि, धर्मत्याग, आदि थे। इन के लिए कोड़े लगाना, अंगविच्छेद, शारीरिक  यंत्रणा, म़ृत्युदंड आदि निर्धारित थे। लेकिन सबूतों के अभाव में संदेह का लाभ दिया जाता था। ये दंड मुस्लिम और गैर मुस्लिम दोनों पर लागू किये जाते थे राजा का दायित्व होता था कि वह हद्द के दोषी को अभियोजित करे। इन अपराधों के लिए किसी प्रकार की क्षतिपूर्ति का प्रावधान नहीं था।
2. ताजीर
स का अर्थ ही निराकरण है। इस श्रेणी के अपराधों में दंड का उद्देश्य अपराधी को सुधारना होता था। इस तरह दंड निश्चित नहीं होता था और न्यायाधीश के विवेक के अधीन होता था। मामले के गुण-दोष, परिस्थिति, स्वरूप अपराधी का पिछले  आचरण के अनुसार दंड निर्धारित किया जाता था।  नकली सिक्के ढालना, शारीरिक क्षति, चोरी, जुआ, आदि अपराधों के लिए ‘ताजीर’ के अनुसार दंड दिया जाता था।
3. तशहीर
ये ऐसे अपराध थे जिन के लिए सार्वजनिक निंदा जैसे दंड दिए जाते थे। हिन्दू प्रजा ने भी इन दंडों को स्वीकार किया था। मौखिक निंदा, सिर मुंढ़ाना, जूते का हार पहनाना, गधे पर बिठा कर घुमाना आदि कुछ दंड ऐसे ही हैं।
4. किसास
किसास का अर्थ ही बदला है। इस दंड को अक्सर मानव वध के लिए दिया जाता था। इस दंड का आधार खून के बदले खून था। अपराधी को मृत्यु दंड देने के स्थान पर खून की कीमत के रूप में अर्थ दंड आरोपित किया जाता था। पीड़ित पक्ष अपराधी को क्षमा, विधिक दंड या क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता था। पक्षों में पारस्परिक सहमति से निर्णय नहीं होने पर मामला काजी के सामने पेश होता था। शिकायत कर्ता यदि मामले को वापस ले लेता था तो जरूरी होने पर राज्य उस पर स्वयं अभियोजन चलाता था।
मुगलकाल में सामान्यतः मृत्युदंड प्रचलित नहीं था। लेकिन राजद्रोह, राजकीय धन के दुरुपयोग, जारकर्म, धर्मत्याग, पैगम्बर का अपमान,  हत्या आदि गंभीर अपराधों के लिए केवल सम्राट ही मृत्युदंड देने का अधिकारी था।
मुगलकाल की न्याय व्यवस्था में अनेक कमियाँ थीं। विधि और न्याय ईश्वरीय आदेशों के अनुसार संचालित किया जाता था। न्यायिक अधिकारियों को कुरान में वर्णित विधि की व्याख्या करने का तो अधिकार था लेकिन उस में परिस्थितियों के अनुकूल संशोधन का अधिकार नहीं था। इस के कारण विधि देश-काल के अनुसार विकसित नहीं हो सकी। न्यायालयों का उचित श्रेणी विभाजन और क्षेत्राधिकार नहीं था। न्यायालयों पर सक्षम केन्द्रीय नियंत्रण नहीं था। पूर्व दृष्टान्तों के लिए कोई निश्चित नीति नहीं थी। मुस्लिम धर्मविधि के अलावा स्पष्ट दीवानी विधि नहीं होने के कारण गैर मुस्लिम प्रजा को न्याय प्राप्त करने में असुविधा होती थी। हत्या जै

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