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मुंबई में कोर्ट ऑफ जुडिकेचर की स्थापना : भारत में विधि का इतिहास-18

मुंबई की 1670 की न्यायिक योजना अपने दोषों के कारण अधिक नहीं चल पायी। आंगियार के नेतृत्व में  विलकॉक्स की नियुक्ति के बाद उस ने पुरानी व्यवस्था का समापन कर 1672 में नई न्यायिक व्यवस्था की आधार शिला रखी। इस नई योजना में पुर्तगाली विधि का स्थान पर अंग्रेजी विधि ने ले लिया। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए वैतनिक न्यायाधीशों की नियुक्ति आरंभ की गई। उन का वेतन 2000 रुपए वार्षिक निर्धारित कर उन्हें निजि व्यापार करने से प्रतिबंधित कर दिया गया। इस तरह एक स्वतंत्र निष्पक्ष न्याय प्रशासन प्रदान करने का का प्रयास आरंभ हुआ। इस व्यवस्था के अंतर्गत चार तरह की अदालतें स्थापित हो गईं।

पंचायतें
यी व्यवस्था के आरंभिक स्तर पर गाँवों में पंचायतों को छोटे छोटे विवादों के अपने प्रचलित रीति रिवाजों के अनुसार निपटारे का अधिकार दिया गया था। वे अपने क्षेत्र के अंतर्गत होने वाले अपराधों की सूचना सम्बद्ध अधिकारियों को प्रेषित करती थीं। उन्हें निराश्रितों की संपत्ति के संरक्षण का दायित्व भी दिया गया था। 
विवेक न्यायालय
दूसरे स्तर पर विवेक न्यायालय स्थापित किया गया था जिस की अध्यक्षता स्वयं विलॉक्स के पास थी। यह 20 जैराफिन तक के दीवानी मामलों की सुनवाई करती थी। जिस के लिए कोई न्यायशुल्क नहीं लिया जाता था। इस न्यायालय की बैठक सप्ताह में एक बार होती थी। बिना जूरियों के संक्षिप्त न्याय प्रक्रिया के अनुसार निर्णय दिए जाते थे।
कोर्ट ऑफ जुडिकेचर (हाईकोर्ट)
विलकॉक्स को इस के लिए मुख्य न्यायाधीश और सहायता के लिए सहायक न्यायाधीश नियुक्त कर पहली बार कोर्ट ऑफ जुडिकेचर की स्थापना की गई। यहीं से आज के बम्बई हाईकोर्ट की स्थापना मानी जाती है। दांडिक प्रशासन के लिए मुंबई को चार भागों बम्बई, माहीम, मझगांव और सायन में  विभाजित कर प्रत्येक में एक शांति न्यायाधीश नियुक्त किया गया। ये सुपुर्दी मजिस्ट्रेट, अभियोजक और निर्धारक का काम करते हुए आरंभिक साक्ष्यों की जाँच कर के अपना प्रतिवेदन न्यायालय को प्रेषित करते थे। न्यायालय की बैठक सप्ताह में एक बार की जाती थी तथा निर्णीत मामलों का अभिलेख रखा जाता था। इन का कंपनी को वार्षिक प्रतिवेदन भेजता था।  गंभीर मामलों में जूरियों की सहायता प्राप्त की जाती थी। पहली बार न्यायालय में पक्षकारों की पैरवी के लिए न्यायवादी को वकालत करने की अनुमति दी गई थी।
दीवानी मामले
न्यायालय को बीस जैराफिन से अधिक मूल्य के दीवानी मामलों की सुनवाई का अधिकार था, पाँच प्रतिशत न्याय शुल्क ली जाती थी। निर्धन व्यक्तियों के 60 जैराफिन तक के मामले  निशुल्क सुने जाते थे। वसीयती मामलों में प्रोबेट और निर्वसीयती मामलों में प्रशासन पत्र जारी करने का अधिकार था। वसीयत, स्थावर संपत्ति के अंतरण और माल विक्रय के बिलों का पंजीकरण भी इसी न्यायालय के अधीन था।  न्यायालय वाद की सुनवाई के लिए प्रक्रिया अपनाने को स्वतंत्र था। मामले की प्रस्तुतिकरण प्रक्रिया सरल थी। लिखित संविदाओं को ही मामले का युक्तिसंगत आधार माना जाता था।  समन भेज कर प्रतिवादी को न्यायालय बुलाया जाता था, उस के उपस्थित होने पर विचारण सामान्य ढंग से होती थी। प्

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