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प्रेसीडेंसियों में नगर निगम और क्राउन के मेयर न्यायालय : भारत में विधि का इतिहास-21

स्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापार के लिए प्रवेश किया था। वह चाहती थी कि उस के अंदरूनी मामलों में न्याय का अधिकार उसी के पास रहे। लेकिन चंद्रगिरी के राजा ने उसे कंपनी के प्रभाव क्षेत्र मद्रास का न्याय करने, प्रशासन और लगान वसूल करने का अधिकार आधा लगान राजकोष में जमा कराने की शर्त पर कंपनी को दे दिया। यही बात थी जिस ने कंपनी की पैर जमाने में सब से अधिक सहायता की। मुम्बई ब्रिटेन के राजा को दहेज में मिली और उसे कंपनी ने 10 पाउंड के सालाना महसूल पर ले लिया। कलकत्ता में उस ने जमींदारी अधिकार खरीदे और प्रशासन के अधिकार साथ में मिल गए। इन से यह बात स्पष्ट है कि भारत के राजा, नवाब और बादशाह को नागरिक प्रशासन में रुचि नहीं रह गई थी। जब शासन परंपरागत रूप से उत्तराधिकार से प्राप्त हो जाए तो कुछ पीढ़ियों के बाद यही स्थिति बनती है। पूरा इतिहास इस तथ्य का साक्षी है। जिस राजवंश ने नागरिक प्रशासन पर अधिक ध्यान दिया और जनता को यह विश्वास रहा कि राज्य उन के साथ न्याय करेगा, उसी ने अधिक लंबे समय तक राज्य किया।
द्रास, मुम्बई और कोलकाता में प्रेजिडेंसियाँ स्थापित कर लेने से ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने व्यापार का प्रसार करने का अवसर मिला। लेकिन उस पर यहाँ नागरिक प्रशासन और न्याय की जिम्मेदारी भी आ गई। उद्यम और व्यापार का विकास होने से तीनों प्रेसीडेंसी नगरों की आबादी तेजी से बढ़ी थी, जो एक सुव्यवस्थित न्याय व्यवस्था की मांग कर रही थी। कंपनी के पास विधि के जानकार और पर्याप्त अधिकारी नहीं थे। तीनों प्रेसिडेंसियों में विधि और प्रक्रिया के मामले में अत्यंत विविधता उत्पन्न हो गई थी, अंग्रेजी कानून, पद्घति और स्थानीय परंपराओं में तालमेल नहीं बैठ रहा था जो अत्यंत चुनौतीपूर्ण काम था।  अपने तमाम प्रयत्नों के बाद भी तीनों प्रेसिडेंसियों में एक सी व्यवस्था स्थापित करने में कंपनी को अवरोध महसूस हो रहा था।  उत्तराधिकार के मामलों पर जो निर्णय भारत में दिए जाते थे ब्रिटिश अदालतें उन्हें स्वीकार नहीं करती थीं और निर्णयों से असंतुष्ट व्यक्ति इंगलेंड में मुकदमे कर देते थे। कंपनी इन मुकदमों से परेशान हो गई थी। नागरिक प्रशासन और न्याय में असफलता नागरिक असंतोष को जन्म दे सकती थी और कंपनी ने अपना जो भी प्रभुत्व स्थापित किया था वह स्थानीय शासकों के हस्तक्षेप से छिन सकता था। कंपनी ने अपने क्षेत्रीय प्रभुत्व की रक्षा और उस के विकास के लिए उपयुक्त न्यायिक व्यवस्था आवश्यक थी। मद्रास में नगर निगम की प्रशासनिक  व्यवस्था और मेयर के न्यायालय उपयुक्त सिद्ध हुए थे। इस कारण से कंपनी ने ब्रिटिश सम्राट को एक याचिका प्रस्तुत की जिस में तीनों प्रेसिडेंसियों में प्रचलित न्याय व्यवस्था पर असंतोष व्यक्त करते हुए इन में  नगर निगम और सक्षम अधिकारिता की दीवानी और अपराधिक न्याय व्यवस्था स्थापित करने का निवेदन किया गया था। इस में कहा गया था कि ऐसी न्याय व्यवस्था से कंपनी की प्रशासनिक और वाणिज्यिक स्थिति में सुधार होगा और इंग्लेंड के राजस्व में वृद्धि होगी और ब्रिटिश प्रभुत्व के विस्तार में मदद मिलेगी।
कंपनी की इस याचिका के संदर्भ में इंग्लेंड के सम्राट जॉर्ज प्रथम द्वारा 24 सितम्बर 1726 को एक चार्टर जारी किया गया। इस चार्टर से भारत में प्रथम क्राउन न्यायालय की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो गया। चार्टर में  प्रेसिडेंसी नगरों में प्रशासन के लिए नगर निगम और न्याय व्यवस्था
के लिए  क्राउन के मेयर न्यायालय स्थापित किए जाने का उपबंध किया गया था। इन की प्रशासनिक और न्यायिक अधिकारिता का निश्चय कंपनी के स्थान पर स्पष्टतः चार्टर द्वारा कर दिया गया। इन न्य़ायालयों को न्याय करने के लिए मद्रास के मेयर न्यायालय से अधिक स्वतंत्रता दी गई थी। 1726 के चार्टर से तीनों प्रेसिडेंसी नगरों में अपने-अपने नगर निगम स्थापित किए गए। तीनों स्थानों पर मेयर न्यायालय के साथ साथ शांति न्यायाधीश और सत्र न्यायालयों की स्थापना की गई थी। कंपनी के सपरिषद गवर्नरों को उपविधि, नियम और विनियम बनाने का अधिकार प्रदान किया गया था, जो तर्कसंगत होने के साथ ही इंग्लेंड में प्रचलित विधि के प्रतिकूल नहीं हो सकती थी। इस तरह इस चार्टर द्वारा प्रथम बार सपरिषद गवर्नर को ब्रिटिश भारत में अधीनस्थ विधायन शक्ति सृजित हो गई थी।
चित्र-एडमिरल्टी हाउस मुंबई, जहाँ मेयर कोर्ट की बैठकें होती थीं।
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