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1926 की न्याय व्यवस्था से हुए परिवर्तन : भारत में विधि का इतिहास-23

पूर्व में स्थापित न्याय व्यवस्था को 1926 के चार्टर ने बहुत बदला। हम इस बदलाव को इस तरह समझ सकते हैं….
  1. पहले के न्यायालय कंपनी द्वारा गठित थे, जब कि इस चार्टर से गठित सभी न्यायालयों का स्रोत ब्रिटिश क्राउन था।
  2. तीनों प्रेसीडेंसी नगरों में समान तरह की न्याय प्रणाली और नगर प्रशासन स्थापित हुआ था।
  3. मद्रास का मेयर न्यायालय पहले दीवानी और अपराधिक मामले देखता था। इस चार्टर से उस की अधिकारिता केवल दीवानी मामलों तक सीमित रह गई थी।
  4. पहले केवल एक ही अपील सपरिषद गवर्नर के न्यायालय को की जा सकती थी। अब सपरिषद न्यायालय के निर्णयों की अपील किंग इन काउंसिल को की जा सकती थी। इस तरह दूसरी अपील की व्यवस्था पहली बार स्थापित की गई थी।
  5. पहले सपरिषद गवर्नर के न्यायालय को दाण्डिक अधिकारिता नहीं थी। लेकिन अब उसे दाण्डिक मामलों की अपील सुनने का अधिकार मिल गया था। इस तरह न्यायपालिका पर कार्यपालिका का प्रभुत्व स्थापित किया गया था।
  6. पहले स्वविवेक, साम्य और शुद्ध अंतकरण के सिद्धांतों के आधार पर न्याय किया जाता था। लेकिन अब इंग्लेंड में प्रचलित विधि और न्यायिक प्रक्रिया प्रभावी हो गई थी।
  7. पहले मेयर न्यायालय को अंग्रेजी विधि के दक्ष व्यक्ति की सहायता अभिलेखक के रूप में प्राप्त थी। जब कि अब ऐसा कोई उपबंध चार्टर में नहीं होने से मेयर न्यायालय विधि ज्ञान से वंचित रह गया था।
  8. पहले मेयर न्यायालय में भारतीय भी ऐल्डरमेन हो सकते थे। जब कि नए मेयर न्यायालय में उन के लिए कोई स्थान नहीं था। इस तरह अंग्रेजों के हितों की पूर्ति हुई थी। 
न्यायपालिका और कार्यपालिका में टकराव
स तरह इस नयी न्यायिक व्यवस्था में गुण और दोष दोनों थे। मेयर न्यायालय की अपील का अधिकार सपरिषद गवर्नर को दिए जाने से न्यायिक व्यवस्था पर कार्यपालिका का नियंत्रण स्थापित हो गया था और दोनों के मध्य मतभेद पनपने लगे थे। कार्यपालिका से  न्यायिक पृथकता के सिद्धांत को नकार दिया गया था। अक्सर ही सपरिषद गवर्नर द्वारा मेयर न्यायालय का विरोधी मत अपनाया जाने लगा था। गवर्नर मेयर न्यायालय में अपने निर्देशानुसार निर्णय देने के लिए प्रयत्नशील रहता था। मेयर न्यायालय गवर्नर के निर्देशों की अवहेलना कर देता था। इस से दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा और टकराव की स्थितियाँ बनीं, जो स्वच्छ न्याय प्रशासन के लिए घातक थीं। विभिन्न प्रेसिडेंसियों में दोनों के मध्य टकराव और संबंधों में कटुता के अनेक मामले सामने आए।
भारतीय हितों के विपरीत
1726 के चार्टर के अनेक उपबंध स्पष्ट नहीं थे। भारतीय व्यक्तियों के मामले की अधिकारिता स्पष्ट नहीं की गई थी। जिस से तीनों प्रेसिडेंसियों में स्थापित नई न्यायिक व्यवस्था से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला था। न्यायालयों की प्रक्रिया बिलकुल नई थी और भारत में प्रचलित परंपराओं और प्रथाओं से अलग थी जिस से उन्हें बहुत परेशानी होने लगी थी। इस के कारण मेयर न्यायालय भारतीय व्यक्तियों को न्याय प्रदान करने में असमर्थ रहा। उन के लिए कोई वैकल्पिक न्याय व्यवस्था भी गठित नहीं की गई थी।
विधि की अज्ञानता
मेयर न्यायालय में कंपनी के सामान्य कर्मचारी ही न्यायकर्ता नियुक्त किए जाते थे जिन्हें विधि का कोई ज्ञान नहीं था। वे विधिशास्त्र के सिद्धांतो से परिचित नहीं थे। इस तरह न्यायव्यवस्था एक परिहास बन कर रह गई थी। इस से न्यायिक व्यवस्था का स्वाभाविक विकास अवरुद्ध हो गया था।
इस के बावजूद भी क्राउन द्वारा स्थापित होने के कारण इस नयी व्यवस्था से स्थापित न्यायालयों के निर्णयों को इंग्लेंड में मान्यता मिल गई थी और  तीनो प्रेसिडेंसियों में समान व्यवस्था कायम हुई थी। सपरिषद गवर्नर को विधाई शक्ति मिल जाने से भारत में अधीनस्थ विधायन प्रारंभ हुआ था।
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