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मद्रास फ्रांसिसियों के कब्जे में और न्यायालय की स्वायत्तता का अंत भारत में विधि का इतिहास-25

मद्रास पर फ्रांसिसियों का कब्जा
14 सितंबर 1746 को मद्रास पर फ्रांसिसियों ने कब्जा कर लिया जो तीन वर्षों तक बना रहा। वहाँ न्यायिक व्यवस्था निलंबित हो गई। 1749 में फ्रांसिसियों और अंग्रेजों के बीच हुई संधि से मद्रास पुनः कंपनी को प्राप्त हुआ। पुरानी न्याय व्यवस्था को पुनर्जीवित किए जाने के प्रयास किए गए जो निष्फल रहे। विधिज्ञों का मत था कि विदेशी आधिपत्य के कारण पुराने चार्टरों की वैधता समाप्त हो गई है। 8 जनवरी 1753 को ब्रिटिश सम्राट ने एक नया चार्टर जरी किया जिस के द्वारा 1726 के चार्टर के दोषों का निराकरण करने का प्रयत्न किया गया था। यह चार्टर तीनों प्रेसिडेंसियों के लिए समान रूप से जारी किया गया था।

न्यायालयों की स्वायत्तता का अंत

1753 के चार्टर के द्वारा नगर निगमों और मेयर न्यायालयों पर सपरिषद गवर्नर के नियंत्रण को प्रभावी बना दिया गया। ऐल्डरमैन के पदों की रिक्तियों के लिए प्राधिकार सपरिषद गवर्नर को दे दिया गया। ऐल्डरमैनों द्वारा मेयर का चुनाव करने की पद्धति को समाप्त कर दिया गया उस के स्थान पर ऐल्डरमैन दो नामों का प्रस्ताव करने लगे जिस में से किसी एक को सपरिषद गवर्नर द्वारा मेयर नियुक्त किया जाने लगा। मेयर न्यायालय के गठन का अधिकार भी सपरिषद गवर्नर को दे दिया गया।  अब निगम या न्यायालय में कोई भी तभी तक नियुक्त रह सकता था जब तक कि उस पर सपरिषद गवर्नर की मेहरबानी रहे। इस तरह निगम और न्यायालय दोनों ही सपरिषद गवर्नर की अनियंत्रित शक्तियों के अधीन हो गए। मेयर न्यायालयों की स्वायत्तता का अंत हो गया। देशज व्यक्तियों को 1753 के चार्टर से अपने मामलों के अपने रीति रिवाजों के अनुसार अपने निर्णायकों निपटाने की छूट प्रदान कर दी गई। किसी मामले में पक्षकार सहमत होते थे तो मामला मेयर न्यायालय को निर्णय के लिए सोंपा जा सकता था। इस तरह मेयर न्यायालय की अधिकारिता स्पष्ट रूप से सीमित कर दी गई थी।

प्रार्थना न्यायालयों की स्थापना
1753 के चार्टर से छोटे पाँच पैगोडा तक के दीवानी मामलों के लिए प्रत्येक प्रेसीडेंसी में एक-एक प्रार्थना न्यायालय की स्थापना की गई। जिस में कंपनी में कार्यरत कर्मचारी को न्यायिक प्राधिकारी नियुक्त किया जाता था जो कमिश्नर कहलाता था। इन की संख्या एक न्यायालय में आठ से चौबीस तक हो सकती थी। आधे प्राधिकारी प्रत्येक वर्ष सेवानिवृत्त हो जाते थे। रिक्तियों की पूर्ति गवर्नर करता था। ये न्यायालय त्वरित और सस्ता न्याय देने के लिए उपयोगी सिद्ध हुए। इस तरह अब चार तरह के न्यायालय हो गए थे। 1. प्रार्थना न्यायालय, 2. मेयर न्यायालय, 3. शांति और सत्र न्यायालय तथा प्रिवि काउंसिल जिस में मेयर न्यायालय के एक हजार पैगोडा से अधिक के निर्णयों की अपील प्रस्तुत की जा सकती थी।

कुछ अन्य विशेषताएँ
मेयर न्यायालय को मेयर के विरुद्ध वाद की सुनवाई का अधिकार दिया गया था। वह कंपनी के विरुद्ध भी वादों की सुनवाई कर सकता था। ऐसे मामलों में कंपनी को विरोधी पक्षकार के रूप में पक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार था। किसी न्यायाधीश का किसी मामले में हित संबद्ध होता था तो उसे न्यायाधीश के रूप में बैठने की अनुमति नहीं थी। ईसाई साक्षियों के लिए शपथ विधि निर्धारित कर दी गई थी, जब कि अन्य मामलों में प्रचलित प्रथा के अनुसार शपथ ग्रहण करने की छूट दे दी गई थी।

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