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मुगल कालीन सर्वोच्च और प्रांतीय न्यायालय : भारत में विधि का इतिहास-8

सामान्य प्रशासन
मुगल काल की तीसरी पीढ़ी के शासक अकबर ने मुगल साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान किया। इस स्थायित्व का मुख्य कारण तब तक का सब से सुव्यवस्थित प्रशासन था। एक सुव्यवस्थित प्रशासन उपयुक्त विधि और न्याय तंत्र के बिना स्थापित किया जाना संभव नहीं था। मुगल काल में ग्राम स्तर तक सुव्यवस्था व न्याय तंत्र की पहुँच थी। सुविधा की दृष्टि से साम्राज्य (सल्तनत-ए-मुगलशाही) राजधानी, सूबे, सरकार, परगना और ग्राम इकाइयों के रूप में संगठित था। सम्राट में साम्राज्य के सर्वोच्च सत्ताधिपति के रूप में समस्त कार्यपालिका, विधाय़ी, न्यायिक और सैनिक शक्तियाँ निहित थीं।
न्यायालयों का वर्गीकरण
मुगल काल में सम्राट को विधि और न्याय का प्रमुख माना जाता था। लेकिन उस काल में कोई लिखित विधि या संहिता मौजूद नहीं थी। परंपरा से चली आई रूढि़यों को विधि का स्थान प्राप्त था। सम्राट ईश्वर के प्रतिनिधि और पृथ्वी पर उस की प्रतिच्छाया (जिल्लेइलाही) के रूप में दैवी आदेशों का पालन कराता था। उसे अपने समस्त कृत्यों के लिए ईश्वर के प्रति उत्तरदायी माना जाता था। इस काल में पृथक से न्याय विभाग था, जिसे महकमा -ए-अदालत कहा जाता था। सभी स्तरों पर अदालतों का गठन किया गया था। न्यायालय तीन विभागों में वर्गीकृत था। धर्म विधि, सामान्य विधि, और राजनैतिक मामलों के लिए पृथक-पृथक न्यायालय हुआ करते थे। धर्म विधि के लिए क़ाजी, सामान्य विधि के लिए नाज़िम, अन्य अधीनस्थ अधिकारी, कबीलों के मुखिया और जातीय पंचायते हुआ करती थीं। राजनैतिक मामलों के लिए सम्राट और उस के अभिकर्ता न्यायालय की भूमिका निभाते थे।
सम्राट का न्यायालय
सम्राट का न्यायालय मुगल काल में सर्वोच्च न्यायालय था। वह न्याय और विधि का प्रमुख स्रोत था। प्रजा सम्राट के न्याय में असीम विश्वास करती थी। सम्राट अपने न्यायालय का प्रमुख था और व्यक्तिगत सुनवाई करते हुए विभिन्न मामलों में स्वयं निर्णय करता था। वह अंतिम अपीली न्यायालय तो था ही उस के सामने मामले सीधे भी प्रस्तुत किए जा सकते थे। किसी निर्धारित तिथि पर कोई भी प्रजाजन धर्म और जाति, स्त्री-पुरुष के भेद के बिना सम्राट के सामने सीधे फरियाद कर सकता था। व्यक्तिगत यात्रा के समय भी सम्राट का न्यायालय नियमित रूप से काम करता था और अधिकारियों के विरुद्ध भी शिकायतें सुनी जाती थीं। इस न्यायिक कार्य में दरोगा-ए-अदालत, मुफ्ती और मीर आदिल आदि न्यायिक अधिकारी प्रारंभिक सुनवाई के मामलों में सम्राट की सहायता करते थे। अपीली मामलों में सम्राट क़ाजी-ए-क़ज्जात (मुख्य न्यायाधीश) सहित कुछ अन्य प्रमुख लोगों की एक पीठ में सुनवाई कर निर्णय करता था।

साम्राज्य का मुख्य न्यायालय
म्राट के न्यायालय के उपरांत साम्राज्य का मुख्य न्यायालय अदालत-ए-क़ाजी-अल-क़ुज्जात हुआ करती थी। जिस का प्रमुख सम्राट द्वारा न
ियुक्त क़ाजी-अल-क़ुज्जात करता था। इस पद पर किसी उच्च विद्वान और पवित्र चरित्र के व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाता था। किसी प्रान्तीय मुख्य क़ाजी को पदोन्नति के द्वारा भी इस पद पर नियुक्ति दी जा सकती थी। इस न्यायालय के द्वारा प्रारंभिक और अपीली दीवानी और फौजदारी मामलों की सुनवाई की जाती थी। यह न्यायालय सूबों की अदालतों पर भी निगरानी रखता था।
प्रान्तीय न्यायालय
प्रान्त का मुख्य न्यायालय अदालत-नाजिम-ए-सूबा होता था। जिस का मुख्य न्यायाधीश नाज़िम (सूबेदार) हुआ करता था। सूबे की राजधानी में घटित होने वाले सारे मामले इस की मौलिक अधिकारिता में शामिल थे।  नाजिम आरंभिक, अपीली और पुनरीक्षण मामलों में गठित पीठ का मुखिया होता था। न्यायिक कार्य में क़ाजी -ए-सूबा और राजस्व मामलों में दीवान-ए-सूबा नाजिम की मदद करते थे। इस न्यायालय द्वारा निचली अदालतों के खिलाफ पेश की गई अपीलों का निपटारा किया जाता था। नाजिम के निर्णय के विरुद्ध सम्राट के न्यायालय में अपील की जा सकती थी।
अदालत-ए-क़ाजी-ए-सूबा
ह सूबे का सर्वोच्च न्यायालय होता था, क़ाजी-ए-सूबा इस का प्रमुख होता था। धर्म विधि से संबंधित समस्त प्रारंभिक और अपीली मामले इस की अधिकारिता में थे। सरकार (जिला) न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध इस न्यायालय को अपील प्रस्तुत की जा सकती थी। विवाद ग्रस्त मामलों में  क़ाजी-ए-सूबा नाजिम को परामर्श देता था। मुफ्ती, मुसाहिब, दरोगा-ए-अदालत, मीर आदिल, पण्डित, सावनेह नवीस, वाकये निगार आदि इस अदालत के कर्मचारी होते थे।
अदालत-ए-दीवान-ए-सूबा
ह सूबे का सर्वोच्च राजस्व न्यायालय होता था। इसे राजस्व मामलों में प्रारंभिक और अपीली अधिकार थे। इस के निर्णयों की अपील दीवान-ए-आला को की जा सकती थी। इस न्यायालय में पेशकार, दरोगा, खजांची, रोकड़िया आदि कर्मचारी होते थे।
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