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वारेन हेस्टिंग्स के 1780 के न्यायिक सुधार : भारत में विधि का इतिहास-41

राजा नन्दकुमार के मुकदमे का विवरण पढ़ कर वारेन हेस्टिंग्स और न्यायाधीश इम्पे के बारे में कोई भी भारतीय उन का नकारात्मक मूल्यांकन कर सकता है। लेकिन जिन विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने भारत की प्रचलित न्याय प्रणाली और राजस्व व्यवस्था को सुधारने के प्रयत्न किए थे उन के लिए दोनों के योगदान का उल्लेख भारत के विधिक इतिहास में हमेशा होता रहेगा। हेस्टिंग्स के सुधार उपयोगी सिद्ध हुए थे। यदि 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट के कौंसिल के बहुमत को स्वीकारने की बाधा न होती तो शायद वह इन सुधारों को और आगे ले जा सकता था। लेकिन उसे पग-पग पर कौंसिल के विरोध का सामना करना पड़ा था। इन बाधाओं के कारण वह 1780 तक न्यायालय प्रणाली का विकास करने में असमर्थ रहा। प्रान्तीय कौंसिल में नियुक्त अंग्रेज न्यायिक अधिकारियों ने स्थानीय विधियों, प्रथाओं और भाषा की जानकारी के अभाव में मामलों के निपटारे का काम भारतीय अधिकारियों को सोंप दिया। भारतीय अधिकारियों का काम स्थानीय विधि की व्याख्या करना मात्र होता था। लेकिन वे मामलों की सुनवाई और अंतिम निर्णय भी करने लगे। ये निर्णय युक्तिसंगत नहीं होते थे और लोगों की न्याय व्यवस्था के प्रति विश्वास डिगने लगा था। जिस के कारण  प्रान्तीय कौंसिल का काम सुस्त हो गया। ऐसी स्थिति में हेस्टिंग्स ने बंगाल, बिहार और उ़ड़ीसा की न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए 1780 में नई योजना का सूत्रपात किया।
1780 के पहले राजस्व और न्याय प्रशासन दोनों का दायित्व प्रान्तीय परिषदों के पास था। इस से दोनों ही कार्य सुचारु रूप से नहीं हो पा रहे थे। इस कारण से हेस्टिंग्स ने 11 अप्रेल 1780 को प्रान्तीय परिषदों को न्यायिक कार्य से मुक्त कर दिया और उन्हें केवल राजस्व का कार्य करने दिया। इस नई योजना के तहत हेस्टिंग्स ने छह प्रान्तीय खंडों में एक-एक दीवानी अदालत का गठन किया। प्रत्येक दीवानी अदालत में कंपनी द्वारा अनुबंधित एक अंग्रेज अधिकारी को अदालत के मुखिया के रूप में अधीक्षक पदनाम से नियुक्त किया।
न दीवानी अदालतों का में उत्तराधिकार, संयुक्त परिवार की संपत्ति के मामले और सविंदा आदि के दीवानी मामलों में सुनवाई की जाने लगी। इन अदालतों को जमींदारों और ताल्लुकादारों से संबंधित मामलों की सुनवाई का अधिकार भी दिया गया। ये अदालतें 100 रुपये तक मूल्य के दीवानी मामलों को जमींदारों या लोक अधिकारियों को भी निर्णय हेतु प्रेषित कर सकते थे। इन अदालतों के द्वारा निर्णीत किए गए 1000 रुपए तक के मामले अंतिम होते थे। जब कि इस से अधिक मूल्य के मामलों में सपरिषद गवर्नर के कोलकाता स्थित सदर दीवानी अदालत के समक्ष की जा सकती थी। दीवानी अदालतें सप्ताह में तीन दिन बैठक करती थीं। इन की कार्यवाहियों को एक रजिस्टर में लिखा जाता था। सुनवाई खुली अदालत में होती थी। तथा मूल्यांकन के अनुसार 2 से 5 प्रतिशत तक राशि न्यायशुल्क के रूप में ली जाती थी। इन अदालतों के न्यायाधीशों को पद ग्रहण करने के पूर्व निष्पक्ष और दबावहीन न्याय करने की शपथ लेनी होती थी।
वारेन हेस्टिंग्स
स तरह दीवानी न्याय व्यवस्था को राजस्व कार्य से पृथक कर देने से निष्पक्ष और युक्ति संगत न्याय होने की संभावनाएँ बढ़ गई थीं और आम लोगों को शीघ्र न्याय मिलने से न्यायप्रणाली पर विश्वास स्थापित होने लगा था।  लेकिन बंगाल, बिहार और उड़ीसा के विस्तृत क्षेत्र को देखते हुए छह दीवानी अदालतें कम थीं। पक्षकारों को दूर दूर से आना पड़ता था
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