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रेगुलेटिंग एक्ट की निष्फलता और मह्त्व : भारत में विधि का इतिहास-31

परिषद और गवर्नर जनरल के बीच मतभेद
रेगुलेटिंग एक्ट भारत में कंपनी प्रशासन को व्यवस्थित करने के लिए पारित हुआ था। लेकिन इस ने अनेक गड़बड़ियाँ पैदा कर दीं। गवर्नर जनरल को केवल निर्णायक मत देने का अधिकार था। लेकिन उस की परिषद के पाँचों सदस्य अपने बहुमत से गवर्नर जनरल की राय के विरुद्ध निर्णय कर सकते थे। इस का नतीजा परिषद और गवर्नर जनरल के बीच बहुत मतभेद हो गए। परिषद गवर्नर जनरल के निर्णयों को बदलने की क्षमता रखती थी। वारेन हेस्टिंग्स को इसी कारण अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। परिषद बार-बार प्रशान में अवरोध खड़े कर देती थी।  हेस्टिंग्स अनेक बार दुःखी हो कर पद त्याग के लिए तत्पर हो जाता था। इस तरह कार्यापालिका अपने ही अंतर्विरोधों के कारण निष्क्रीय रही।
गवर्नर जनरल और  प्रेसिडेंसियों के बीच मतभेद
वर्नर जनरल को भारत की समस्त ब्रिटिश प्रजा पर नियंत्रण का अधिकार दिया गया था। लेकिन अधीनस्थ प्रेसीडेंसियों पर उस के क्या अधिकार होंगे? यह स्पष्ट नहीं था। जिस के कारण प्रेसिडेंसियाँ गवर्नर जनरल के आदेशों की अवहेलना कर स्वच्छंद रूप से काम करती थीं। इसी तरह भारत में ब्रिटिश सेना का एक कमांडर इन चीफ नियुक्त कर दिया गया था। जिसे गवर्नर जनरल के प्राधिकार से मुक्त रखा गया था। वह भी गवर्नर जनरल के निर्देशों की अवहेलना कर सकता था।
 वारेन हेस्टिंग्स
सुप्रीमकोर्ट और परिषद में टकराव
सुप्रीम कोर्ट का कंपनी के कर्मचारियों के कार्यों पर तथा नागरिकों पर होने वाले अत्याचारों पर नियंत्रण रखना था। लेकिन गवर्नर जनरल और उस की परिषद के सदस्य उस की अधिकारिता के बाहर थे जिस के कारण वह उन पर कानूनी नियंत्रण रख पाने में असमर्थ रहा। किस मामले में कौन सी प्रक्रिया अपनाई जाए यह स्पष्ट नहीं होने के कारण भारतियों के मामले में अंग्रेजी विधिक प्रक्रिया अपनाई जाती थी। जो भारतीय जनजीवन के अनुकूल नहीं होने के कारण उन्हें कोई लाभ नहीं पहुँचा सकी। जिस से जालसाजी जैसे सामान्य अपराध के लिए मृत्युदंड जैसे दंड निष्पादित कर दिए।
अनिश्चित अधिकारिता
सु्प्रीम कोर्ट की अधिकारिता अनिश्चित थी। ‘ब्रिटिश प्रजाजन’  और ‘हिज मैजेस्टी के प्रजाजन’ पदों को परिभाषित नहीं किया गया था। जिस के कारण तीन व्याख्याएँ  हो सकती थीं। जन्म से अंग्रेज ही ब्रिटिश प्रजाजन थे, कलकत्ता में निवास करने वाली जनता भी ब्रिटिश प्रजाजन थी और ब्रिटिश सब्जेक्ट और हिज मेजेस्टी में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की पूरी जनता भी इस के अंतर्गत आती थी।  यह भी स्पष्ट नहीं था कि कंपनी द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नियोजित और अप्रत्यक्ष रूप से नियोजित कर्मचारियों के वर्ग में कौन लोग सम्मिलित किए जाएंगे। जमींदार भी उस की अधिकारिता में आएंगे या नहीं, यह भी स्पष्ट नहीं था। रेगुलेटिंग एक्ट के द्वारा कार्यपालिका को कंपनी के प्रति और सुप्रीमकोर्ट को क्राउन के प्रति उत्तरदायी बनाया गया था। लेकिन यह दोनों ही निष्फल सिद्ध हुए। दोनों के कार्यों का स्पष्ट विभाजन न होने से दोनों ही उत्तरदायी सिद्ध न  हुए। सुप्रीम कोर्ट रिटे
ं जारी कर कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करती रही। इस तरह रेगुलेटिंग एक्ट कार्यपालिका पर संसदीय हस्तक्षेप कायम नहीं कर सका।
भारतीय जनता में कंपनी के प्रति घृणा में वृद्धि
रिषद के सदस्यों की अनुभवहीनता के कारण वे अपने प्राधिकारों का सदुपयोग नहीं कर सके। इस से भारतीय जनता की समस्याएँ और बढ़ गईं और कपनी के प्रति घृणा को बढ़ावा मिला। कंपनी के कर्मचारियों पर प्रभावी नियंत्रण न कर पाने के कारण कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश नहीं लग सका। कंपनी में 500 पाउंड के अंशधारक के स्थान पर न्यूनतम 1000 पाउंड के अंशधारक को ही मत देने का अधिकार देने और 3000 व 5000 पाउंड के अंशधारकों को दो तथा तीन मत देने का अधिकार प्रद्त्त कर देने से कंपनी के नियंत्रकों की संख्या कम हो गयी और कंपनी प्रशासन पहले की अपेक्षा अधिक निरंकुश हो गया।
राजस्व वसूली में अवरोध
सु्प्रीम कोर्ट ने रिट जारी करने की शक्ति का उपयोग राजस्व मामलों में भी किया।  लेकिन परिषद ने उसे मानने से इंन्कार कर दिया।  इसी तरह सु्प्रीम कोर्ट ने कंपनी कर्मचारियों के दीवानी व अपराधिक मामलों पर अपनी अधिकारिता का उपयोग किया तो अनेक मामलों में परिषद ने उसे मानने से इन्कार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट और अधीनस्थ न्यायालयों में तालमेल का अभाव रहा। हेस्टिंग्स की योजना को सुप्रीम कोर्ट का समर्थन न मिलने से दोनों में पारस्परिक तनाव बना रहा।  ढाका की परिषद ने मालगुजारी का भुगतान न करने वालों को बंदी बनाया तो सु्प्रीमकोर्ट ने उन्हें रिट जारी कर मुक्त कर दिया। जिस से मालगुजारी एकत्र करने में अवरोध उत्पन्न हुआ। इस तरह रेगुलेटिंग एक्ट एक असफल कानून सिद्ध हुआ।
अधिनियम का महत्व
रेगुलेटिंग एक्ट का महत्व इस बात के लिए स्वीकार किया जा सकता है कि यह असफल होने पर भी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार की आधारशिला सिद्ध हुआ। इस से कंपनी की निरंकुश शक्तियों पर एक सीमा तक प्रतिबंध लगा और कुछ हद तक रिश्वतखोरी तथा कंपनी की लूट-खसोट को कम कर सका। इस के साथ ही  भारत में लिखित संविधान की पद्धति का आरंभ हुआ। कंपनी की शक्तियों पर संसद का नियंत्रण कायम करने का आरंभ हुआ। इस अधिनियम से विधि के शासन का आरंभ हो सका जो बाद में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित करने में सहायक सिद्ध हुआ।
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