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ऐलीजा इंपे ने रखी दीवानी प्रक्रिया संहिता की नींव : भारत में विधि का इतिहास-42

हेस्टिंग्स की 1772 की न्यायिक योजना में प्रान्तीय परिषदों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों और कुछ अन्य दीवानी मामलों की सुनवाई का दायित्व सपरिषद गवर्नर जनरल पर था। लेकिन वे प्रशासनिक कार्यों में इतने व्यस्त रहते थे कि उन्हें मुकदमों की सुनवाई का समय ही नहीं मिलता था। वे आम तौर पर रिकॉर्ड के आधार पर ही निर्णय दे दिया करते थे। वे विधि के जानकार नहीं थे, जिस से सदर दीवानी अदालत का काम न्याय संगत नहीं होता था। इस का प्रभाव मुफस्सल दीवानी अदालतों पर भी पड़ रहा था। हेस्टिंग्स को इस की जानकारी थी। वह न्याय को युक्तिसंगत और निष्पक्ष बनाना चाहता था। उस ने 1780 में  सपरिषद गवर्नर के निर्णय से ऐलीजा इम्पे को सदर दीवानी अदालत का कार्यभार भी सोंप दिया। इम्पे विधि विशेषज्ञ था और वह सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में काम कर रहा था। इस से सुप्रीमकोर्ट और सदर दीवानी अदालत की कार्यविधि में एकरूपता स्थापित करने में मदद मिलने की आशा होने से इस नियुक्ति का सामान्य रूप से स्वागत हुआ। इस से सुप्रीमकोर्ट और सपरिषद गवर्नर के मध्य चल रहे विवादों के शांत होने का मार्ग भी खुला।
हेस्टिंग्स के इस कदम का विरोध इस तकनीकी आधार पर हुआ कि एक न्यायाधीश को दो न्यायालयों का मुखिया नहीं बनाया जा सकता। यह भी संभावना व्यक्त की गई थी कि इस से अंग्रेजी विधि का प्रभाव बढ़ेगा जो असुविधाजनक सिद्ध होगी। लेकिन समर्थकों का कहना था कि इस से कंपनी के नियंत्रण में चल रही दीवानी न्यायिक व्यवस्था में व्याप्त दोषों, बुराइयों और भ्रष्टाचार को हटा कर एक निष्पक्ष और स्वस्थ न्यायिक व्यवस्था स्थापित की जा सकेगी। ऐलीजा इम्पे ने सदर दीवानी अदालत के मुखिया के रूप में अनेक रचनात्मक सुधार किए। मुकदमों की सुनवाई खूली अदालत में होने लगी। साक्षियों को शपथ ग्रहण कराने का नियम लागू किया। विधि अधिकारियों से निर्णय करने का अधिकार वापस ले कर उन्हें केवल विधिक व्याख्याकार के रूप में काम करने दिया गया।
न् 1781 में दीवानी अदालतों की संख्या छह से बढ़ा कर 18 कर दी गई और यह आदेश दिया गया कि लोगों के दीवानी मामलों में उन की व्यक्तिगत स्थानीय विधियों के अनुसार ही निर्णय प्रदान किए जाएँ। यदि किसी विवादित तथ्य की व्याख्या स्थानीय विधि से नहीं की जा सकती हो तो साम्य, विवेक और शुद्ध अंतःकरण के आधार पर निर्णय करने की परिपाटी विकसित की गई। 200 रुपए मूल्य तक के मामलों के लिए मुंसिफ अदालतों का गठन किया गया। ऐलीजा इंपे ने 3 नवम्बर 1780 को सदर दीवानी अदालत की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए 13 सिविल विनियम जारी किए। इन्हीं विनियमों ने आज की सिविल प्रक्रिया संहिता की नींव रखी। इम्पे ने सिविल प्रक्रिया का विकास करते हुए 95 विनियमों की एक पुस्तिका जारी की जो 4 अप्रेल 1781 को सपरिषद गवर्नर द्वारा अनुमोदित कर देने पर पहली सिविल प्रक्रिया संहिता  के रूप में प्रकाशित हुई। इस में दीवानी मामलों में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया को निर्धारित किया गया था।
सी संहिता के अधीन सदर दीवानी अदालत को अपील कोर्ट मानते हुए मुफस्सल दीवानी अदालतों के अधीक्षण और निरीक्षण का दायित्व भी दिया गया। सदर दीवानी अदालत को यह अधिकार भी दिया गया कि वह मुफस्सल दीवानी अदालत के न्यायाधीश को अवचार के मामले में लिप्त पाए जाने पर निलंबित कर सके। इस तरह सदर दीवानी अदालत दीवानी न्याय व्यवस्था की मुख्य प्रहरी के रूप में निखर कर सामने आई थी।
लेकिन इम्पे के बढ़ते प्रभाव को देख कर इंग्लेंड में उस के विरोधी सक्रिय हो गए थे। ब्रिटिश सरकार भी उस के हाथों में न्यायिक शक्ति का केंद्रीकरण देख कर चिंतित हो उठी। सम्राट का विचार था कि सदर दीवानी अदालत का मुखिया हो जाने से इम्पे सु्प्रीमकोर्ट के कर्तव्यों का निर्वाह ठीक से नहीं कर पा रहा है और कंपनी के दायित्वों में उलझ कर रह गया है। 3 मई 1782 को ब्रिटिश संसद ने प्रस्ताव पारित किया कि  एलीजा इम्पे ने यह वैतनिक पद ग्रहण कर के न्यायिक आचार संहिता का उल्लंघन किया है। इस तरह इम्पे को 3 दिसंबर 1782 को इंग्लेंड के लिए वापस लौटना पड़ा। लेकिन भारत में दीवानी मामलों में न्यायिक व्यवस्था को गति और सुव्यवस्थित रूप दिए जाने के उस का योगदान एक आरंभ बिन्दु साबित हुआ।
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