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लार्ड कॉर्नवलिस को 1790 के दाण्डिक न्याय प्रशासन में बदलाव : भारत में विधि का इतिहास-45

लॉर्ड कॉर्नवलिस के गवर्नर बनने के समय अपराधिक न्याय प्रशासन में पूरी अराजकता थी। दंड न्यायालयों में शोषण, दमन और भ्रष्टाचार व्याप्त था। जेलें अपराधियों से भरी पड़ी थीं। दोषी व्यक्ति बच जाते थे और निर्दोष व्यक्तियों को सजा हो जाती थी। दांडिक व्यवस्था आम लोगों की लूटखसोट का माध्यम बन गई थी। लॉर्ड कॉर्नवलिस ने गवर्नर बनने के उपरांत इस व्यवस्था का गंभीर रूप से अध्ययन किया और पाया कि इसे आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। न्यायालय प्रणाली में सुधार और मुस्लिम दंड विधि के दोषों के उन्मूलन हेतु उस ने 1790 में एक नई योजना तैयार की जिसे 3 दिसंबर 1790 को लागू किया गया। इस योजना के अंतर्गत सदर निजामत अदालत में नायब नाजिम के पद  और मुफस्सल निजामतों को समाप्त कर दिया गया। नयी व्यवस्था में न्यायालयों की स्थिति पहले से भिन्न हो गई।

सदर निजामत अदालत

दर निजामत अदालत के मुख्यालय को मुर्शिदाबाद से हटा कर कलकत्ता ले जाया गया। नायब नाजिम के स्थान पर गवर्नर जनरल और उस की परिषद के सदस्यों को ही सदर निजामत अदालत के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त किया। उन की सहायता के लिए मुस्लिम विधि में पारंगत  एक मुख्य काजी और दो मुफ्ती नियुक्त किए। सदर निजामत अदालत मुख्यतः अपील अदालत थी। उसे आवश्यक मामलों में दंड को निलंबित करने अथवा दंड को कम करने या दया याचिका को गवर्नर जनरल या उस की परिषद को प्रेषित करने की शक्ति प्रदान की गई। सदर निजामत अदालत अपीलों का निर्णय विचारण मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट, सर्किट न्यायालय की कार्यवाही और बचाव के लिखित अभिवचनों के आधार पर किया जाता था। अदालत की समस्त कार्यवाही का अभिलेख रखा जाता था। वकील अथवा पक्षकार को अदालत में बहस करने की अनुमति नहीं थी। सदर निजामत अदालत को न्यायिक कार्यवाही के अतिरिक्त पुलिस व्यवस्था के निरीक्षण का अधिकार भी दिया गया था।
सर्किट न्यायालय
लॉर्ड कॉर्नवलिस ने मुफस्सल निजामत अदालतों को समाप्त कर समस्त क्षेत्र को चार खंडों कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, ढाका और पटना में विभाजित कर दिया और प्रत्येक खंड में एक-एक सर्किट न्यायालय की स्थापना की। प्रत्येक न्यायालय में कंपनी द्वारा अनुबंधित दो-दो अंग्रेज अधिकारियों को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया और उन की सहायता के लिए काजी और मुफ्ती की नियुक्ति की गई जो विधि की व्याख्या करने के साथ ही विभिन्न मामलों में फतवा जारी करते थे। उन के फतवे के अनुसार ही दंडादेश दिया जाता था  और उस का प्रवर्तन किया जाता था। मुस्लिम विधि अधिकारियों को स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करने के अधिकार के साथ ही उन्हें सुरक्षा प्रदान की गई थी। उन्हें अक्षमता और अवचार का दोषी पाने पर ही सपरिषद गवर्नर के द्वारा पदच्युत किया जा सकता था। सर्किट न्यायालय चल-न्यायालय के रूप में कार्य करते थे। वे वर्ष में चार बार कलकत्ता में, वर्ष में दो बार प्रत्येक जिले में और माह में एक बार प्रान्तीय केंद्र में न्यायिक कार्य करते थे। ये न्यायालय संबंधित जिलों का दौरा कर के अभियोगों का विचारण करते थे। वे मृत्युदंड, आजीवन कारावास और विधि अधिकारियों से असहमति के मामलों पर अंतिम निर्णय नहीं कर सकते थे और ऐसे मामलों को सदर निजामत अदालत को प्रेषित कर दिया जाता था।
मजिस्ट्रेट के न्यायालय

मुफस्सल अदालत प्रणाली को समाप्त कर सर्किट न्यायालय स्थापित करने के साथ ही प्रत्येक सर्किट को जिलों मे  विभाजित कर दिया गया था। प्रत्येक जिले में मजिस्ट्रेट का न्यायालय स्थापित किया गया जिस की मुखिया कलेक्टर होता था।  उक्त न्यायालय को अपराधियों को बंदी बनाने, उन के विरुद्ध साक्ष्य लेने और विचारण हेतु सर्किट न्यायालय के सुपुर्द करने के कार्य कर सकता था। मजिस्ट्रेट मामूली अपराधों के लिए 15 कोड़ों और 15 दिन तक के कारावास का दंड दे सकता था। न्यायालय अपनी बैठक के लिए अधिसूचना जारी करता था। न्यायालय कार्यवाही का अभिलेख रखा जाता था और विचारण किए गए और लंबित मामलों की सूची रखी जाती थी। यह सूची सदर निजामत अदालत को प्रेषित की जाती थी। यह न्यायालय सर्किट न्यायालय द्वारा दिए गए दंड़ों का निष्पादन भी करती थी। कलेक्टर मजिस्ट्रेट शांति न्यायाधीश का काम भी करता था।

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