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राजस्व और दीवानी न्यायालयों का फिर से पृथक्करण : भारत में विधि का इतिहास-47

लॉर्ड कॉर्नवलिस 1787 और 1790 के अपने सुधारों से संतुष्ट न हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों कदम उस के अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए केवल प्रयोग मात्र थे। उस ने 11 फरवरी 1793 को अपनी कौंसिल में अपना उद्देश्य स्पष्ट रूप से रखा। “आम भारतीय जनता को सुखी बना कर ही कंपनी की सरकार और क्षेत्रीय प्रभुता को सुरक्षित किया जा सकता है। यदि जनता सुखी रहती है तो वह सरकार के बने रहने की कामना करेंगे इस कारण से भारत के निवासियों की समृद्धि आवश्यक है। यदि लोग समृद्ध होते हैं तो कंपनी का लाभ भी बढ़ेगा।” इस तरह इन शब्दों में कॉर्नवलिस ने बहुत बड़े सत्य को उजागर कर दिया था। आखिर माल केवल समृद्ध लोगों को ही बेचा जा सकता है। उसी से अर्थव्यवस्था को बनाए रखा जा सकता था। अपनी इस योजना को लागू करने के लिए लॉर्ड कॉर्नवलिस ने प्रशासनिक और न्याय व्यवस्था को आमूलचूल रुप से परिवर्तित करने का निर्णय किया और व्यापक सुधार लागू किए‍। 
भू-राजस्व और न्यायिक कार्यों का पृथक्करण 
लॉर्ड कॉर्नवलिस की भू-राजस्व और न्यायिक कार्यों का एकीकरण की योजना सफल नहीं हो सकी थी। उस ने उन्हें पुनः पृथक करने का निर्णय किया। कलेक्टर के पास केवल राजस्व का काम रह गया जिस का विस्तार कर दिया गया। कलेक्टर को राजस्व मंडल को मासिक रिपोर्ट प्रेषित करने का दायित्व सोंपा गया। राजस्व मंडल को सपरिषद गवर्नर के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। दीवानी न्यायिक कार्यों को इस व्यवस्था से पूरी तरह पृथक कर दिया गया। 
दीवानी न्यायालयों का पुनर्गठन
1-सदर दीवानी अदालत
1793 की इस योजना के अंतर्गत सदर दीवानी अदालत की अधिकारिता में परिवर्तन कर उसे सर्वोच्च अपीली अदालत के रूप में मान्यता दी गई। इस न्यायालय को प्रान्तीय न्यायालय के 1000 रुपए से अधिक के मामलों में अपीलों की सुनवाई का अधिकार दिया गया। सदर दीवानी अदालत द्वारा 5000 हजार रुपए से अधिक मूल्य के दीवानी मामलों के निर्णयों की अपील किंग इन कौंसिल को की जा सकती थी। सदर दीवानी अदालत को आकस्मिक और आवश्यक परिस्थितियों में प्रान्तीय और मुफस्सल दीवानी अदालतों के क्षेत्राधिकार के मामले  प्रारंभिक रूप से सुनने का अधिकार भी दिया गया था। इसे अधीनस्थ न्यायालयों के पर्यवेक्षण और उन के न्यायाधीशों के अवचार के मामले सुनने का अधिकार भी दिया गया। 
2-प्रान्तीय न्यायालय
हले से चल रहे चार सर्किट न्यायालयों को 1793 की योजना के अंतर्गत सशक्त बना कर उन्हें प्रान्तीय न्यायालय का दर्जा दिया गया। यह न्यायालय मुफस्सल दीवानी अदालत के निर्णयों के विरुद्ध अपील की सुनवाई कर सकता था और 1000 रुपए मूल्य तक के दीवानी मामलों में इस अदालत के निर्णय अंतिम होते थे। यह न्यायालय आकस्मिक परिस्थितियों में मुफस्सल अदालत के क्षेत्राधिकार के मामलों की सुनवाई भी कर सकते थे। ये मुफस्सल अदालत के न्यायाधीशों के अवचार और भ्रष्टाचार के मामले भी सुन सकते थे जिन क निष्कर्ष रिपोर्ट सहित सदर दीवानी अदालत को भेजा जाना आवश्यक था।
3- मुफस्सल दीवानी अदालत
हले जिले में मुफस्सल दीवानी अदालतों का काम कलेक्टर को सौंप दिया गया था। लेकिन वे
केवल राजस्व के कार्यों में संलिप्त रहते थे और उन्हें न्यायिक कार्यो के लिए समय नहीं रहता था। इस कारण से यह कार्य उन से पृथक कर के पुन मुफस्सल दीवानी अदालतें कायम की गई। इन में कंपनी के अनुबंधित कर्मचारियों को न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इन्हें उत्तराधिकार, संपत्ति के सिविल मामले, ऋण, लेखा, विवाह, भागीदारी, क्षतिपूर्ति और जातीय मामलों की सुनवाई का अधिकार दिया गया था। न्यायाधीशों को निष्पक्षता से काम करने की शपथ दिलाई जाती थी। खुले न्यायालय में विचारण होता था और मामले का अभिलेख रखा जाता था। जिलों में इन न्यायालयों की स्थापना के साथ ही पटना, मुर्शिदाबाद, ढाका, में भी नगर सिविल न्यायालय स्थापित किए गए। 
4-रजिस्ट्रार का न्यायालय
मुफस्सल दीवानी न्यायालय की सहायता के लिए कंपनी एक अनुबंधित कर्मचारी को रजिस्ट्रार पदनाम से नियुक्ति दे कर प्रत्येक जिले में उस का न्यायालय स्थापित किया गया। रजिस्ट्रार न्यायालय 200 रुपए मूल्य तक के मामलों की सुनवाई कर सकता था। लेकिन इस न्यायालय के निर्णय मुफस्सल दीवानी अदालत के न्यायाधीश द्वारा प्रतिहस्ताक्षर हो जाने पर ही अंतिम होते थे। 
5- मुंसिफ न्यायालय
हली बार 1793 की योजना के अंतर्गत विनियम-11 के अंतर्गत मुंसिफ न्यायालय की स्थापना की गई। इस न्यायालय में मुंसिफ के पद के लिए मुफस्सल दीवानी अदालत ताल्लुकदारों, जमींदारों, किसानों और प्रतिष्ठित नागरिकों में से चयन करती थी और सदर दीवानी अदालत के अनुमोदन से उसे मुंसिफ नियुक्त करती थी। मुंसिफ न्यायालय 50 रुपए मूल्य तक के मामलों की सुनवाई कर सकता था। ये न्यायालय इस तरह स्थापित किए गए थे कि किसी भी व्यक्ति को इन तक पहुँचने के लिए 50 मील से अधिक न चलना पड़े। इस न्यायालय को मामले सीधे प्रस्तुत किए जा सकते थे लेकिन उन का निष्पादन केवल मुफस्सल अदालत द्वारा ही किया जा सकता था। वस्तुतः मुंसिफ एक मध्यस्थ की तरह काम करते थे। इस अदालत के निर्णयों की प्रथम अपील मुफस्सल दीवानी अदालत को व द्वितीय अपील प्रान्तीय न्यायालय को की जा सकती थी। मुंसिफ का कार्यकाल तीन वर्ष का होता था। इस से पूर्व उसे केवल अवचार के कारण ही हटाया जा सकता था। भारतियों की न्यायिक कार्य में भागीदारी के लिए मुंसिफ की सहायता के लिए अमीन पदनाम से कर्मचारी की नियुक्ति की जाती थी। यह मुंसिफ की प्रशानिक कार्यों में सहायता करता था और मुफस्सल दीवानी अदालत द्वारा सौंपे गए 50 रुपए मूल्य तक के मामलों का निपटारा कर सकता था।
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