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जिला न्यायालयों की अधिकारिता में वृद्धि : भारत में विधि का इतिहास-61

प्रांतीय न्यायालयों का समापन

बेंटिंक ने 1831 के पाँचवें विनियम के माध्यम से जिले में स्थित प्रान्तीय न्यायालयों की अपीलीय अधिकारिता को समाप्त कर दिया और उस की अधिकारिता जिला न्यायालयों को दे दी। इस से जिला न्यायालयों की अधिकारिता में वृद्धि हुई और उन्हें दीवानी मुकदमों का विचारण करने की असीमित अधिकारिता प्राप्त हो गई। 1833 के दूसरे विनियम के द्वारा सभी प्रान्तीय अपील न्यायालयों की समाप्ति का अधिकार गवर्नर जनरल को प्राप्त हो जाने पर और उन्हें समाप्त कर दिए जाने पर प्रान्तीय न्यायालयों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया और उन की अधिकारिता जिला न्यायालयों को प्राप्त हो गई। इस से जिला न्यायालय सशक्त हुए लेकिन उन के पास कार्यों में भी वृद्धि हो गई। इस से मुकदमों के निस्तारण में विलम्ब न हो इस के लिए 1833 के आठवें विनियम से जिला न्यायालयों में सहायक न्यायाधीशों की नियुक्ति का उपबंध किया गया। 
अधीनस्थ न्यायालयों की अधिकारिता में वृद्धि
जिला न्यायालयों की अधिकारिता में वृद्धि हो जाने पर यह आवश्यक ही था कि उस के अधीनस्थ न्यायालयों की अधिकारिता में वृद्धि की जाए। 1831 के पाँचवें विनियम द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों में भारतियों को नियुक्त करने का उपबंध कर दिया गया था। इस नई नीति के अंतर्गत मुंसिफ, सदर अमीन और मुख्य सदर अमीन के न्यायालयोंमें भारतीय व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाने लगा। मुंसिफ की अधिकारिता 300 रुपए तथा मुख्य सदर अमीन को 5000 रुपए मूल्य तक के दीवानी मामलों  की सुनवाई का अधिकार दे दिया गया। मुख्य सदर अमीन का पद बेंटिंक द्वारा ही प्रथम बार सृजित किया गया था।  जो जिले में एक या उस से अधिक हो सकते थे। सदर अमीन जिला या नगर न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट मामलों की सुनवाई कर सकते थे।
स तरह जिला स्तर पर जो न्याय व्यवस्था स्थापित हुई थी वह बहुत कुछ आज की व्यवस्था के समान थी। हम तुलना करें तो पाएंगे कि मुंसिफ आज के कनिष्ष्ट सिविल जज के समान था और  सदर अमीन का न्यायालय वरिष्ठ सिविल जज के मानिंद। मुख्य सदर अमीन  आज के मुख्य वरिष्ठ सिविल जज की तरह। इन सब के ऊपर अपील और निरीक्षण न्यायालय जिला जज का न्यायालय और उस की सहायता के लिए उस के सहायक जिला न्यायालय। हम कह सकते हैं कि लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने जो ढाँचा खड़ा किया था वह इतना व्यवस्थित था  कि वह आज दो सौ वर्षो के उपरांत भी उतना ही उपयोगी है। इस मामले  में उसे दूरदर्शी ही कहा जाएगा।
जूरी प्रथा का प्रचलन
1832 के छठे विनियम के द्वारा सपरिषद गवर्नर जनरल को सिविल मामलों में जूरी की सहायता प्राप्त करने का प्राधिकार दिया गया था। जूरियों को तीन श्रेणियों में बांटा गया था। प्रथम श्रेणी के जूरी प्रतिष्ठित व्यक्ति होते थे जो किसी भी मामले में जाँच कर के अपनी रिपोर्ट न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करते थे। दूसरी श्रेणी के जूरी साक्ष्य अभिलिखित करने का काम कर सकते थे और तथ्यों के सम्बन्ध में रिपोर्ट न्यायालय को दे सकते थे। तीसरी श्रेणी के जूरी भारतीय होते थे जो किसी भी मामले में प्रश्नगत विषयों पर अपनी राय न्यायालय को देते थे। यह राय न्यायालय के लिए आबद्धकर नहीं होती थी। न्यायालय किसी मामले को जाँच के लिए किसी पंचायत को भी भेज सकते थे। 
भू-राजस्

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