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विलियम बेंटिंक के उपरांत 1861 तक की न्याय व्यवस्था : भारत में विधि का इतिहास-63

विलियम बेंटिंक

विलियम बेंटिंक के बाद के गवर्नर जनरलों ने बेंटिंक की नीति का ही अनुसरण करते हुए न्याय व्यवस्था के मूल ढाँचे को यथावत बनाए रखा। 1836 में जातिगत भेदभाव पर अंकुश लगाते हुए स्पष्ट किया गया था कि कोई भी व्यक्ति जन्म और वंश के आधार पर कंपनी के न्यायालयों से मुक्त नहीं रह सकेगा। जन्म और वंश के आधार पर कोई भी व्यक्ति मुंसिफ, अमीन और सदर अमीन के पदों पर नियुक्ति के लिए योग्य या अयोग्य नहीं माना जाएगा।  इस के साथ ही ब्रिटिश प्रजाजनों के मामलों में कंपनी न्यायालयों द्वारा किए गए निर्णयों की अपील केवल सुप्रीम कोर्ट में किए जाने का नियम  भी समाप्त कर दिया गया। इस तरह कंपनी न्यायालयों का स्तर उन्नत ही नहीं किया गया उन्हें स्वायत्तता भी प्राप्त हो गई।

 भारतीय विधान सभा में 1837 में यह प्रस्ताव आया कि मुख्य सदर अमीन की अधिकारिता पर वाद मूल्य का प्रतिबंध हटा लिया जाए। उस समय मुख्य सदर अमीन को 5000 रुपए मूल्य तक के ही दीवानी वाद सुनने की अधिकारिता थी। प्रस्ताव के अनुसार उन्हें असीमित मूल्य के दावों पर अधिकारिता मिल सकती थी। सदर दीवानी अदालत के न्यायाधीशों ने इस प्रस्ताव का इस आधार पर विरोध किया कि भारतीय न्यायाधीशों को इस दायित्व के लिए विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।  गवर्नर जनरल की परिषद के विधि सदस्य लॉर्ड मैकाले ने इस प्रस्ताव का जबर्दस्त समर्थन किया और कहा कि जब भारतीय न्यायाधीशों को 5000 रुपए मूल्य के वादों के लिए विश्वसनीय माना जा सकता है तो वे असीमित मूल्य के वादों की सुनवाई के लिए भी सक्षम सिद्ध होंगे। परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि मुकदमों की संख्या को देखते हुए पर्याप्त संख्या में अंग्रेज न्यायाधीश नियुक्त किया जाना संभव नहीं था। अधिकारिता में इस वृद्धि से जिला दीवानी अदालत के कार्याधिक्य को कम करना संभव था। अंततः मुख्य सदर अमीन के न्यायालय को असीमित मूल्य के दावे सुनने की अधिकारिता प्रदान कर दी गई। अब 5000 रुपए मूल्य तक के दावों की अपील जिला दीवानी अदालत में और इस से अधिक मूल्य के दावों के निर्णयों की अपील सदर दीवानी अदालत को की जा सकती थी। इस तरह ब्रिटिश भारत में पहली बार भारतीय न्यायाधीशों को इतना महत्व प्राप्त हुआ था।

दांडिक न्याय व्यवस्था में भी भारतियों को महत्व प्राप्त  हुआ था। 1831 में मजिस्ट्रेट और कलेक्टर के दायित्वों का एकीकरण किया गया था। किन्तु 1835 में गवर्नर जनरल ऑकलेंड ने दायित्वों का पृथक्कीकरण कर दिया। लेकिन फिर 1859 में पुनः एकीकरण कर दिया गया। 1843 के अधिनियम में भारतीय व्यक्तियों के लिए डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद का सृजन किया गया और उन्हें दाण्डिक न्याय प्रशासन का दायित्व सौंपा गया। इस तरह भारतियों को न्यायाधीश नियुक्त कर सम्यक न्याय किए जाने की व्यवस्था की गई वहीं मजिस्ट्रेटों का कार्यभार कम किया गया।

1861 तक यही न्याय व्यवस्था चलती रही। उन दिनों न्यायालयों में जिन विधियों का प्रवर्तन किया जाता था वे मुख्यतः निम्न प्रकार थीं –

 1. 1726 में प्रचलित सामान्य विधि जिस में कोई संशोधन नहीं किया गया था।

 2. स्थानीय विधायन द्वारा प्रवृत्त व स्वीकृत अंग्रेजी विधियाँ।

 3. अंग्रेजी विधियाँ जिन में कोई संशोधन नहीं किया गया था।

 4. इंग्लेंड में धार्मिक व नौकाधिकरण अधिकारिता में प्रवृत्त सिविल विधियाँ।

 5. 1833 से पूर्व गवर्नर जनरल इन कौंसिल द्वारा बनाए गए और न्यायालय में पंजीकृत कराए गए विनियम और इस व्यवस्था में बनाए गए अधिनियम।

 6. उत्तराधिकार, दाय, विवाह, अभिवृत्ति, आदि से संबद्ध हिन्दू और मुस्लिम विधियाँ और प्रथाएँ।

 7. संविदा के मामलो में प्रतिवादी पर प्रचलित स्थानीय विधि।

 8. न्याय, साम्य और सद्विवेक के सिद्धांत।

9. संशोधित मुस्लिम दंड विधि।

स तरह जो विधियाँ प्रवृत्त की जा रही थीं उन में समानता नहीं थी और असमंजस बना रहता था कि किस मामले में कौन सी विधि प्रवृत्त होगी। अंत में 1837 के चार्टर द्वारा कंपनी के न्यायालयों  को विधि के विनिश्चय का अधिकार दिए जाने से विधि को सुनिश्चित स्वरूप प्रदान किए जाने का प्रयत्न किया गया था।

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