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उच्च न्यायालयों की स्थापना के लिए अधिनियम : भारत में विधि का इतिहास-76

ब्रिटिश भारत में 1861 तक जो न्यायिक व्यवस्था विकसित हुई थी वे दो भिन्न प्रकार की थीं। प्रेसीडेंसी नगरों मद्रास, कलकत्ता और मुम्बई में सुप्रीम कोर्ट स्थापित थे जो ब्रिटिश क्राउन के न्यायालय थे। ये ब्रिटिश संसद की विधिक प्राधिकारिता और सुप्रीम कोर्ट द्वारा पंजीकृत विनियमों के प्रति उत्तरदायी थे। वे हिन्दू और मुसलमानों के कुछ विशिष्ठ दीवानी मामलों को छोड़ कर ब्रिटिश विधि का ही अनुसरण करते थे। सुप्रीम कोर्ट की अधिकारिता प्रेसीडेंसी नगरों और उन की विस्तृत अधिकारिता के क्षेत्रों में निवास करने वाले ब्रिटिश प्रजाजनों पर ही लागू थी। मुफस्सल क्षेत्रों के केवल उन्हीं मामलों की सुनवाई का उन्हें अधिकार था जिनमें किसी ब्रिटिश नागरिक के साथ 500 रुपए से अधिक मूल्य की कोई संविदा विवादास्पद हो। अथवा प्रतिवादी ने सुप्रीम कोर्ट से मामले का निपटारा करने की अनुमति दे दी हो। सुप्रीम कोर्टों को राजस्व मामलों की सुनवाई का अधिकार नहीं था। इन के न्यायाधीश सीधे क्राउन द्वारा नियुक्त किए जाते थे जो केवल ब्रिटिश नागरिक हो सकते थे।
प्रेसीडेंसियों के अतिरिक्त मुफस्सल क्षेत्रों में कम्पनी के न्यायालय कार्यरत थे। अधीनस्थ न्यायालयों की उच्चतम अपील सदर दीवानी अदालत और सदर निजामत अदालत में की जा सकती थी। इन अदालतों की अधिकारिता में सामान्यतः केवल भारतीय नागरिकों को ही सम्मिलित किया गया था और यूरोपीय व्यक्तियों को उस से अलग रखा गया था। इन अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रान्तीय सरकारों द्वारा की जाती थी। इन अदालतों में भारतीय परंपरागत हिन्दू और मुस्लिम विधियों को मान्यता दी गई थी। इन अदालतों की प्रक्रिया सुगम थी और सु्प्रीम कोर्ट की भांति जटिल नहीं थी। 
स तरह की दोहरी न्यायिक व्यवस्था से जटिल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती रहती थीं। सुप्रीम कोर्टों ने अनेक बार अपने न्यायिक क्षेत्राधिकार के बाहर जा कर मामलों को ग्रहण किया और उन में निर्णय प्रदान कर उन का निष्पादन भी किया। अनेक बार कुछ मामलों को दोनों ही तरह के न्यायालयों ने ग्रहण कर लिया और भिन्न-भिन्न निर्णय प्रदान कर दिए। इस कारण से सुप्रीम कोर्ट और सपरिषद गवर्नरों के बीच विवाद उठते रहते थे। ब्रिटिश भारत में उच्चतम अपील केवल किंग इन कौंसिल को ही की जा सकती थी। यह व्यवस्था सुविधा जनक नहीं थी और इंग्लेंड जा कर अपील करना केवल चंद लोगों के लिए ही मुमकिन हो सकता था। कंपनी न्यायालयों के निर्णय सुप्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार में जा कर निष्पादित करा पाना संभव नहीं था और उन्हें न्याय प्राप्त करने के लिए फिर से सुप्रीम कोर्ट में जाना होता था। 
1833 के अधिनियम से कंपनी न्यायालयों की दीवानी अधिकारिता का विस्तार यूरोपीय व्यक्तियों तक किया जा कर इस विषमता को कम करने का प्रयास किया गया था। किन्तु यह एक अधूरा उपाय था। यूरोपीय व्यक्तियों को उच्चतम दीवानी न्यायालय के निर्णय की अपील भी सुप्रीम कोर्ट में किए जाने का अधिकार दिया गया था। जहाँ मामले पर एक पूरी तरह भिन्न पद्धति से विचार होता था और अक्सर निर्णयों को उलट दिया जाता था। 1853 में नियंत्रण मंडल के अध्यक्ष चार्ल्स वुड ने सुप्रीम कोर्ट दीवानी अदालतों के एकीकरण का सुझाव दिया। लेकिन इसे विधि आयोग द्वारा मान्य नहीं किया गया। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के उपरांत भारत में कम्पनी का राज पूरी तरह समाप्त हो गया और ब्रिटिश भारत पर ब्रिटिश क्राउन का सीधा नियंत्रण स्थापित किया गया। इसी समय दीवानी प्रक्रिया संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता की रचना की गई। 
सेक्रेट्री और स्टेट ने 1861 में हाउस ऑफ कॉमन्स के समक्ष स्पष्ट किया कि दोनों न्यायिक व्यवस्थाओं का एकीकरण कर के ब्रिटिश कानूनी ज्ञान और भारत की देशज विधियों, प्रथाओं और परम्परागत ज्ञान को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। इस अवधारणा के अंतर्गत 1861 में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम (Indian High Courts Act) पारित किया गया जो 6 अगस्त 1861 से प्रभावी हुआ। इस अधिनियम के अंतर्गत कलकत्ता, मद्रास और मुम्बई में एक एक उच्च न्यायालय स्थापित करने तथा तीनों प्रेसीडेंसियों में स्थापित सुप्रीम कोर्टों और सदर अदालतों को समाप्त करने  का अधिकार ब्रिटिश क्राउन को दिया गया।
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