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प्रथम विधि आयोग और अविनियमित प्रान्तों की न्यायिक व्यवस्था : भारत में विधि का इतिहास-73

द्रास, बम्बई और कलकत्ता प्रेसीडेंसियों में विधि व्यवस्था का विकास अलग अलग हुआ था और उन में पर्याप्त भिन्नता थी। इन दिनों जो न्यायिक व्यवस्था भारत के कंपनी शासित क्षेत्रों में स्थापित थी वह संतोष जनक नहीं थी। इस कारण से 1843 में प्रथम विधि आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने तीनों प्रेसीडेंसियों में समरूप न्यायिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए ठोस सुझाव दिए। आयोग का सुझाव था कि मुख्य सदर अमीनों को स्वतंत्र दीवानी अधिकारिता प्रदान की जाए और उन के द्वारा निर्णीत 1000 रुपए मूल्य तक के मामलों में जिला न्यायालयों को अपील का अधिकार प्रदान किया जाए। सदर अमीन के पद समाप्त कर दिए जाएँ और मुंसिफ की अधिकारिता 1000 रुपए मूल्य तक के मामलों तक कर दी जाए तथा उन्हें दांडिक अधिकारिता भी प्रदान की जाए। पहली बार यह सिद्धांत सामने आया था कि हर श्रेणी के न्यायालय को दीवानी और दांडिक दोनों प्रकार की अधिकारिता प्रदान की जानी चाहिए। इस सिद्धांत के आधार पर ही भारत की न्यायिक व्यवस्था में आज भी प्रत्येक अधीनस्थ न्यायालय को दोनों प्रकार की अधिकारिता प्राप्त है।
द्रास, बम्बई और कलकत्ता प्रेसीडेंसियों में न्याय व्यवस्था विनियमों (Regulations) के माध्यम से चलती थी। प्रारंभ में ब्रिटिश प्रभुसत्ता का विस्तार इन्ही स्थानों पर था। बाद में बनारस व अन्य क्षेत्र भी विजित हो कर या हस्तांतरित हो कर ब्रिटिश प्रभुसत्ता के अंतर्गत आ गए। 1833 के पूर्व तीनों प्रेसीडेंसियों के  सपरिषद गवर्नर अपने अपने क्षेत्रों के लिए विनियम जारी कर सकते थे। लेकिन 1833 में अंकुश लगा कर केवल बंगाल के सपरिषद गवर्नर जनरल को ही विनियम जारी करने का अधिकार दे दिया गया।
धीरे-धीरे भारत में ब्रिटिश प्रभुसत्ता का विस्तार होता रहा और ऐसे क्षेत्र भी सम्मिलित हो गए जिन्हें न तो विनियमित प्रांतों में सम्मिलित किया गया और न ही उन के लिए विनियम जारी किए गए। 1861 में इंडियन कौंसिल एक्ट पारित होने पर उस की धारा 25 में यह स्पष्ट किया गया कि सपरिषद गवर्नर जनरल या डिप्टी गवर्नर जनरल द्वारा अविनियमित प्रांतों में जारी किए गए अध्यादेश, परिपत्र व कानूनों को वैध मानते हुए उन्हें भूतलक्षी प्रभाव दिया जाए। ये सभी क्षेत्र अविनियमित प्रान्त कहे जाने लगे। पंजाब, मध्य प्रांत, अवध, सिंध, असम आदि ऐसे ही प्रान्त थे।
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