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अदालतों की भाषा वही होनी चाहिए जो उस के अधिकांश न्यायार्थियों की भाषा है

ज भी यह एक प्रश्न हमारे माथे पर चिपका हुआ है कि अदालतों का काम किस भाषा में होना चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों का काम अंग्रेजी में हो रहा है। अनेक राज्यों में अधीनस्थ न्यायालयों का काम भी अंग्रेजी में हो रहा है। राजस्थान, मध्यप्रदेश का मेरा अनुभव है कि वहाँ अधीनस्थ न्यायालयों का काम हि्न्दी में हो रहा है। राजस्थान उच्च न्यायालय हिन्दी में आने वाली याचिकाओं की सुनवाई करता है और न्यायालय में संवाद और बहस का माध्यम अधिकांश हिन्दी ही है। फिर भी यह भाव बना हुआ है कि अंग्रेजी में काम करने वाले अभिभाषक स्तरीय हैं। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में काम  की भाषा का मेरा अनुभव नहीं है लेकिन मेरी जानकारी के अनुसार वहाँ हिन्दी की स्थिति राजस्थान से बेहतर होनी चाहिए। यही स्थिति छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय की होनी चाहिए। इलाहाबाद व पटना उच्च न्यायालय और उन की पीठों में भी हिन्दी अपरिचित नहीं है। मेरे विचार में हिन्दी के हृदयस्थल होने के कारण वहाँ के उच्च न्यायालयों में हिन्दी की स्थिति सर्वाधिक अच्छी होनी चाहिए।  मेरा कुछ माह पहले हरियाणा की अदालतों को देखने का अवसर मिला। मुझे आश्चर्य हुआ कि एक संपूर्ण हिन्दी प्रदेश होने के उपरांत भी वहाँ अधीनस्थ न्यायालयों में काम अंग्रेजी में ही होता है और हिन्दी उपेक्षित है।
दालतों का काम उस भाषा में होना चाहिए जो उस के अधिकांश न्यायार्थियों की भाषा है। यदि न्याय देने का काम एक अपरिचित भाषा में होता है तो निश्चित है कि न्यायार्थी इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं कि उन के मामले के साथ क्या हो रहा है। उन्हें उतना ही पता लग पाता है जितना वे समझ पाते हैं या फिर जो उन्हें समझा दिया जाता है। इस से उन्हें न्याय प्राप्त होने में कठिनाई होती है। हरियाणा में यदि एक दीवानी वाद अंग्रेजी में लिखा गया है तो उस में क्या लिखा है यह वाद प्रस्तुत करने वाले को उतना ही पता होता है जितना की उस का वकील उसे बता देता है। जब कि वादी को वाद के अभिवचनों का सत्यापन करना होता है। इस तरह जो सत्यापन किया जाता है या किया जा रहा है उस का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन सत्यापन के बिना कोई वाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। समस्या तब खड़ी होती है जब उसी वाद में वादी की साक्ष्य हो रही होती है और तब उस से यह प्रश्न पूछा जाता है कि जो कुछ वह कह रहा है उसे उस ने वाद में अंकित ही नहीं कराया। कानून यह है कि जो तथ्य आप ने वाद में किए गए अभिवचनों में अंकित ही नहीं किया है उस की साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की जा सकती है। इस तरह अनेक न्यायार्थियों को हानि होती है।
दालतों में हिन्दी में काम करने पर आने वाली कठिनाइयों की बात है तो इस के पक्ष में दिये जाने वाले सभी तर्क खोखले हैं। राजस्थान की सभी अदालतों में हिन्दी में काम होता है और कोई समस्या खड़ी नहीं होती। राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा हजारों आदेश और निर्णय हिन्दी में पारित किए जा चुके हैं। जहाँ तक मुझे स्मरण है पूर्व न्यायाधीश शिव कुमार शर्मा ने अकेले लगभग ग्यारह हजार से अधिक निर्णय और आदेश हिन्दी में लिखाए थे। वर्तमान में वे विधि आयोग के सदस्य हैं। न्यायालयों को हिन्दी में काम करने मे कोई कठिनाई नहीं होती। यदि कोई ऐसा कहता है तो समझ लीजिए वह बहाना कर रहा है। अदालतों को हिन्दी में काम करने में सब से बड़ी बाधा है तो वह स्वयं हिन्दी भाषी वकील और न्यायाधीश हैं
जो अंग्रेजी में काम करने में अपना सम्मान समझते हैं। पूर्व न्यायाधीश शिवकुमार शर्मा का यह कथन बिलकुल सही है कि सभी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएँ प्रस्तुत करने को अनुमत किया जाना चाहिए। चाहे तो यह शर्त जोड़ दी जाए कि उन का अंग्रेजी अनुवाद साथ में प्रस्तुत किया जाए जिस से हिन्दी न जानने वाले जज और पक्षकार को असुविधा नहीं हो।
चलते चलते – – –
क ग्रामीण जिला कलेक्टर से मिलने गया और अपनी समस्या कलेक्टर के सामने रखी। वह अपनी बोली में बोल रहा था। पूरी बात सुनने के बाद कलेक्टर ने उसे सलाह दी कि उसे एक वकील कर लेना चाहिए क्यों कि जो बात वह कह रहा है वह उस की समझ में नहीं आ रही है।
स पर ग्रामीण का कलेक्टर से कहना था कि यदि आप को मेरी बात समझ नहीं आई तो इस में मेरा क्या कसूर है? आप बड़े आदमी हैं, पढ़े लिखे हैं। आप की बात मेरी समझ में न आए तो फिर भी ठीक पर आप को तो मेरी बात समझ में आनी ही चाहिए। वरना आप का पढ़ना लिखना और कलेक्टर बनना बेकार है।
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