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तब विदेशों में भी शरण आसानी से नहीं मिलती

मेरे पडौ़स में एक अनधिकृत मैरिज गार्डन बना है। जब भी वहाँ कोई कार्यक्रम होता है तो सारी गंदगी पिछले दरवाजे से निकाली जाती है। यदि आयोजकों से आते ही यह न कह दिया जाए कि गंदगी को सड़क पर डालने के स्थान पर दूर खाली प्लाट के गड्ढे में डालें तो वे सड़क पर फैला देते हैं। उन की नाली से अन्नकणों से भरा जो पानी निकलता है वह सड़क के किनारे की नाली में आता है। नाली आगे जा कर बंद है, पानी नाली से जमीन में चला जाता है और ठोस पदार्थ नाली में सड़ते हैं। फिर कोई पंद्रह दिनों में जब नगर निगम की सफाई टोली आती है तो वह साफ होता है। इन की शिकायत नगर निगम में की जानी चाहिए। पर वे क्या कर लेंगे? एक चालान बना देंगे। अदालत मामूली जुर्माना कर के उन्हें छोड़ देगी, शिकायतकर्ता की मेरिज गार्डन के मालिक से लाग-डाट हो जाएगी, वह बड़ा आदमी है, कभी भी उसे नुकसान पहुँचा सकता है। सैंकड़ों लोग रोज सड़कों पर, नालियों में गंदगी फैलाते है, कोई सड़क पर जलती सिगरेट का टोटा फैंक रहा है तो कोई गुटखे का पाउच। किसी बाजार के पास पार्किंग के लिए स्थान तलाशने लगेंगे तो सभी स्थान गंदगी से अटे नजर आएंगे। स्थान-स्थान पर खुले में गंदगी फैलाई जा रही है, लेकिन उस पर नियंत्रण नहीं है। 
ड़ी आसानी से एक गुंडा किसी को थप्पड़ मार देता है, थप्पड़ खाने वाला कुछ नहीं कर सकता। पुलिस उस के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं कर सकती, क्यों कि वह काबिल दस्तंदाजी मुकदमा नहीं है, पुलिस उसे सीधे अदालत में शिकायत दर्ज कराने को कहती है। वह अदालत नहीं जाता। यदि वह जाए तो भी वहाँ शिकायत पेश करने पर तारीख पड़ती है, कुछ तारीखों पर अदालत के चक्कर लगाने के बाद उस के बयान लिए जाते हैं। फिर अभियुक्त का समन जारी होता है। कुछ तारीखों तक तो पुलिस को उस समन को तामील कराने की फुरसत नहीं होती। इस बीच थप्पड़ मारने वाले को पता लग जाता है। वह उस समन को तामील नहीं होने देता और उस आदमी पर शिकायत वापस लेने का दबाव बनाता है। गवाहों को डरा देता है। शिकायतकर्ता यदि निर्भय हो कर शिकायत पर डटा रहे तो वहाँ एक लंबे समय तक मुकदमा चलता है। हर तारीख पर शिकायतकर्ता को जाना पड़ता है। अभियुक्त से अधिक पेशियाँ उसे करनी पड़ जाती हैं। बरसों चले मुकदमे के बाद अधिकतर अभियुक्त अदालत से बरी हो जाते हैं। नहीं भी हों तो एक थप्पड़ मारने वाले को चेतावनी दे कर  या मामूली जुर्माना कर के छोड़ दिया जाता है। शिकायत करने वाले को वकील की फीस देनी पड़ी, दूसरे खर्च हुए वे सब पानी में, मुकदमा लड़ने में परेशानी हुई सो अलग। फिर समझ में आता है कि गुंडे का थप्पड़ झेल लेना अधिक ठीक था। 
धर अदालतों में मुकदमों की भरमार है। तीन से छह माह के बीच की पेशियाँ दी जा रही हैं। एक अदालत में मजिस्ट्रेट बता रहा था कि यहाँ तो फिर भी हालात ठीक हैं। अनेक महानगरों में ऐसी अदालतें भी हैं जिन में पंद्रह से बीस हजार मुकदमे लंबित हैं। अदालत पहली पेशी ही छह-आठ माह की देती है। यानी साल में दो पेशी भी नहीं। यदि मुकदमा बीस पेशी में खत्म होना हो तो गए दस से पंद्रह बरस। इस स्थिति से जनता का अदालतों से भरोसा उठने लगा है। अपराध बढ़ रहे हैं। सरकारों ने अपराध दर कम करने के लिए थानों को निर्देश दे दिये हैं कि जब भी कोई रिपोर्ट आए तो पहले लोगों में समझौता कराने की कोशिश
की जाए। अब पुलिस समझौते के लिए कहेगी तो उस का कहने का तरीका कैसा हो सकता है इस का अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। देश में होने वाले आधे अपराध तो पुलिस तक रिपोर्ट ही नहीं होते। जितने लोग पुलिस तक जाते हैं उन में से आधे से अधिक को पुलिस लौटा देती है, उन की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं करती। जिन में बहुत जरूरी होता है उन में ही रिपोर्ट दर्ज हो पाती है। पुलिस जितने मामलों में अदालत में अभियोग दर्ज कराती है उस के दस प्रतिशत से भी कम में अभियुक्तों को सजा होती है। 
ब आप खुद सोच सकते हैं कि ऐसी स्थिति में क्या अपराध दर कम हो सकती है? दीवानी मामले बरसों-बरस ही नहीं पीढ़ियों तक चलते हैं, तब कहीं जा कर उन का फैसला हो पाता है। फिर अपील दर अपील समय लगता है। लोगों ने अपने दीवानी मामले अदालत में ले जाना कम कर दिया है। अब अदालत वही जाता है जो कि मजबूर है, जिस के पास कोई और रास्ता नहीं है। यह सब इस लिए है कि देश में न तो पर्याप्त मात्रा में पुलिस बल है, पुलिस बल भी अधिकांश अन्य कामों में लगा रहता है, उसे अपराध के अन्वेषण की फुरसत नहीं है। आपाधापी में अन्वेषण होता है। अदालत में इतना समय लगता है कि जब तक गवाही का अवसर आता है गवाह की स्मृति जवाब दे चुकी होती है या उसे पटा लिया जाता है। किसी भी व्यक्ति में यह भय नहीं रह गया है कि यदि वह कानून तोड़ेगा तो उसे उस का दंड अवश्य मिलेगा,  अपराध करेगा तो सजा पाएगा। 
न सारी स्थितियों को सुधारने और सही मायनों में कानून का राज स्थापित करने की जरूरत है। अदालतों की संख्या और पुलिस बल तुंरत बढ़ाने की जरूरत है,। अपराध अन्वेषण के काम के लिए एक अलग पुलिस की आवश्यकता है जो इस काम में दक्ष हो। लेकिन सरकारों को कोई सुध नहीं। वे समझती हैं उन्हें केवल पाँच बरस रहना है। फिर आगे जो आए, वह जाने। यह सही है कि जनता का भी इन मामलों में कोई विशेष प्रतिरोध नहीं दिखाई देता। ऐसा लगता है कि वह अपनी सारी संवेदनाएँ खो बैठी है, उसे कभी गुस्सा आता ही नहीं है। यह सोच भी बनती है कि ये हाल कभी न सुधरेगा। लेकिन ऐसा नहीं है। जब कानून का राज खत्म  हो जाता है तो  देर सबेर जनता बदलाव लाने पर उतारू हो ही जाती है। जब ऐसा होता है,  तब शासकों को अपने देश छोड़ने पड़ जाते हैं, और यह भी होता है कि उस समय विदेशों में भी शरण आसानी से नहीं मिलती।
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